नाम शबाना: नाम बड़े और दर्शन छोटे
दीप जगदीप सिंह | रेटिंग 1.5/5
देश की ख़ूफिया ऐजंसियों में जासूस कैसे चुने जाते हैं, उन्हें कैसे परशिक्षण से गुज़रना पड़ता है, उनकी ज़िंदगी कैसे गुमनामी की मौत मरती है और कैसे वह अपने देश के लिए अपने आप और अपने परिवार के लिए भी बेगाने हो जाते हैं,
अगर आप यह सब जानना चाहते हैं तो नाम शबाना देखी जा सकती है, लेकिन अगर आप एक अर्थपूर्ण सधी हुई फिल्म देखने जाएंगे तो आप को निराशा हो सकती है। क्यों? आईए बताते हैं-
शबाना ख़ान (तापसी पन्नू) एक ज़िद्दी, मज़बूत और आत्म-सम्मान वाली मध्यम वर्गीय लड़की है जो काॅलेज में पड़ती है और अपनी विधवा मां के साथ रहती है। उसके चेहरे पर हमेशा सख़्त हाव-भाव रहते हैं और वह अपनी पढ़ाई और कराटे की ट्रेनिंग पर पूरा ध्यान लगाए रखती है। जय (ताहिर शब्बीर मिठाईवाला) उसका दोस्त व बाईक ड्राइवर है जो उससे प्यार करता है, उसके नखरे झेलता है और उसके दिल के पिघलने का इंतज़ार करता है, जिसमें वह एक दिन सफल भी होता है। बचपन में अब्बा की हिंसा झेल चुकी शबाना जब बामुश्किल प्रेम की पगडंडी पर पहला कदम रख ही रही होती है कि अचानक जय का कत्ल हो जाता है। कानून और इंसाफ की दहलीज़ पर भटकती हुई शबाना एक बार फिर पत्थर सी होने लगती है, तभी एक दिन अचानक उसे खूफिया ऐजंसी के अधिकारी रणवीर सिंह (मनोज वाजपेयी) का फ़ोन आता है, जो उस पर उस द्वारा अपने अब्बा के किए गए कत्ल के दिन से ही नज़र रख रहा है। शबाना के निजी इंसाफ के बदले वह उससे ऐजंसी के ज़रिए देश के लिए काम करने की डील करता है, जिसे शबाना स्वीकार कर लेती है। उसके बाद कैसे शबाना जय के कातिलों से मौत का बदला लेती है और कैसे वह अंडर कवर फील्ड ऐजंट बन कर देश-दुनिया के सबसे बड़े दुश्मन को ख़त्म करती है, यही है नाम शबाना का प्लाॅट।
नाम शबाना, ख़ूफिया तंत्र पर आधारित नीरज पांडे द्वारा निर्देशित और लिखित हिट फ़िल्म बेबी की एक किरदार शबाना ख़ान के अंडरकवर ऐजंट बन कर बेबी की टीम में शामिल होने की दास्तान बयान करती है। कहानी नीरज पांडे ने लिखी है जिसे निर्देशित किया है शिवम नायर ने। सी हाॅक्स नामक टीवी सीरियल के लिए चर्चित शिवम नायर सीरियल किलर के जीवन पर आधारित सीरियल रमन राघव के निर्देशक श्रीराम राघवन के सहयोगी भी रहे हैं, लेकिन बतौर फ़िल्म निर्देशक अभी तक कोई ख़ास छाप नहीं छोड़ सके हैं। नाम शबाना में भी कमज़ोर कहानी पर दृश्य हावी करने की कोशिश करते हुए नज़र आते हैं। समझ नहीं आता कि ए वेडनेस डे और स्पैशल छब्बीस जैसी सधी हुई पटकथाएं लिखने वाले नीरज पांडे नाम शबाना में ढीले क्यों पड़ गए नज़र आते हैं। फ़िल्म की पटकथा ज़ब्रदस्ती नाटकीयता और थ्रिल के बीच झूलती रहती है। जहां पर नाटकीयता भी कृत्रिम लगती है और थ्रिल भी ज़ब्रदस्ती ठूंसा हुआ। नीरज ने कहानी को बिल्कुल सोच समझ कर दो हिस्सों में बांटा है। पहले हाफ में शबाना की निजी ज़िंदगी और बदला लेने की कहानी को समेटा गया है, जबकि दूसरे हाफ़ में उसे एक दमदार ख़ूफीया जासूस की तरह देश के लिए काम करते हुए दिखाया गया है। पटकथा का यह बंटवारा ही कहानी को कमज़ोर बनाता है।
फ़िल्म के दोनों हिस्से आपस में गुंथे हुए नहीं है। इसी वजह से इंटरवल तक ऐसा लगता है कि जैसे एक फिल्म ख़त्म हुई अब अगली शुरू हो रही है। इसके साथ ही पहले हाफ़ में जो तनाव बनता है वह इंटरवल तक आते-आते ख़त्म हो जाता है। दर्शक के पास आगे फ़िल्म क्यों देखे, आगे क्या होगा जैसा सोचने के लिए कोई तर्क बचा नहीं रहता है। अब चूंकी टिकट खरीदी है और यह देखना है कि इंटरवल के बाद निर्देशक क्या दिखाना चाहता है, सो दर्शक अपनी सीट पर लौटता है। उसके बाद एक रूटीन एक्शन थ्रिलर की तरह एक ख़लनायक को ढूंढ कर ख़त्म करने जैसे पूरी तरह प्रिडिक्टेबल कहानी आती है और ख़त्म हो जाती है।
अगर आप सोच रहे हैं कि नाम शबाना एक नारीवादी फ़िल्म है तो यह भ्रम भी निकाल दीजिए। नाम शबाना का नारीवाद केवल उसके कुछ भी कर गुज़रने के जुनून तक सीमित है। उसके आगे उसका हर फैसला या तो रणवीर लेता है या उसका ट्रेनर (वीरेंद्र सक्सेना)। यहां तक की मुश्किल में मदद करने, जिसकी आवश्यकता उसे हर कदम पर पड़ती है, के लिए भी अजय सिंह राजपूत (अक्षय कुमार) आता है। बस ख़ूफिया ऐजंसी उसके नारीत्व का प्रयोग अपने फ़ायदे के लिए करती है, केवल नारीत्व ही नहीं उसकी मज़हबी पहचान का भी पूरा इस्तेमाल किया जाता है। जब शबाना रणवीर से पूछती है कि क्या उसका चुनाव में उसके मज़हब की भूमिका है, तो रणवीर जवाब देता है कि उसके मज़हब की वजह से वह वहां भी दाखिल हो सकेंगे जहां आम तौर पर वह नहीं हो पाते हैं।
इस तरह नाम शबाना दिखाती है कि कैसे हमारी ख़ूफियां ऐजंसियां मुश्किलों से जूझ रहे युवाओं की निजी ज़िंदगी, ख़ूबियों और मज़हब तक का फ़ायदा उठा कर अपना काम निकालती हैं और उसके बावजूद ना तो उन्हें कोई पहचान मिलती है और ना ही रूतबा, बल्कि वह एक गुमनामी की अत्प्रयाशित मौत मरने के लिए छोड़ दिए जाते हैं, जिसे ऐजंसी भी स्वीकार करने से इंकार कर देती है। यह कहते हुए रणवीर ख़ूफिया तंत्र के लिए काम कर रहे लोगों की कुर्बानी को फौज की कुर्बानी से भी बड़ा बताते हैं। यही नहीं अगर फ़िल्म पर पूरी तरह से भरोसा करें तो ख़ूफीया ऐजंसियां की बहुत सारे अपराधिक मामलों के समय मौजूदगी होने के बावजूद वह ना तो उन्हें रोकने में कोई भूमिका निभाती हैं और ना ही न्यायिक तंत्र के ज़रिए उस अपराध में न्याय दिलाने में कोई योगदान देतीं हैं। ऐजंटों के सामने कत्ल भी हो जाए तो वह ऐसे मूक दर्शक बन जाते हैं, जैसे उन्होंने कुछ देखा ही नहीं। अगर आप को लग रहा हो कि यह केवल फ़िल्मी बात है तो बता दूं कि अपने एनडीटीवी के साथ एक इंटरव्यू में मनोज वाजपेयी ने पूरी ज़िम्मेदारी के साथ कहा है कि ख़ूफियां ऐजंसियां नए लोगों की भर्ती बिल्कुल वैसे ही करती हैं जैसे फ़िल्म में दिखाया गया है।
तापसी पन्नू अपने किरदार में पूरी तन्मयता से उतरी हुई हैं और उनके द्वारा की गई शारीरिक मेहनत और ट्रेनिंग पर्दे पर साफ़ झलकती है। एक अंतरमुखी युवा लड़की के द्वंद, खिलते प्रेम, पीड़ा और कुछ भी कर गुज़रने के जज़बे को वह अपने हाव-भाव, अदायगी और एक्शन से बेहतरीन सहजता से प्रदर्शित करती हैं। बेबी की भूमिका के लिए अक्षय कुमार को काफी प्रशंसा मिली थी, नाम शबाना की मेहमान भूमिका में भी वह एक दम सधे हुए दिखते हैं और छोटी से भूमिका में गहरी छाप छोड़ते हैं। ख़लनायक के रूप में पृथ्वीराज सुकुमारण भी दमदार लगे हैं। सबसे छोटी मेहमान भूमिका में अनुपम ख़ेर का पहनावा और अंदाज़ दोनों ही मज़ेदार हैं और वह थ्रिलर में एक मज़ाकिया लहज़े का तड़का लगाते हैं। ज़हीर ख़ान भी हंसी का तड़का लगाने की कोशिश करते नज़र आए हैं। ख़ूफिया ऐजंट के रूप में मानव विज काफी भारी-भरकम लगे हैं, शायद इसी लिए इन दिनों जिम में ख़ूब पसीना बहा रहे हैं।
फ़िल्म का गीत-संगीत औसत दर्जे का है मनोज मुंतशिर द्वारा लिखे, रौचक कोहली द्वारा संगीतबद्ध किए गए और श्रेया घोषाल व सुनिधि चैहान द्वारा गाए गए गीत रोज़ाना और ज़िंदा ध्यान खींचते हैं लेकिन गहरी छाप नहीं छोड़ पाते। बाकी के दो आईटम गीत केवल मसाला बढ़ाने और ब्रेक दिलाने का ही काम करते हैं। बैकग्राउंड स्कोर (संजाॅय चैधरी) काफी लाऊड है, जो थ्रिल बढ़ाने की बजाए कानों में चुभता है। फ़िल्म की एडिटिंग (प्रवीण कथीकुलोथ), सिनेमेटोग्राफ़ी ( सुधीर पल्साने) और विज़ुअल ग्राफ़िक्स बेहतरीन है व एक्शन (सीरिल-अब्बास) भी रोचक है।
तापसी पन्नू की ज़ोरदार अदाकारी और एक्शन, अक्षय के अंदाज़ और ख़ूफिया तंत्र के ढांचे का जानने के लिए फ़िल्म देखी जा सकती है।
दीप जगदीप सिंह स्वतंत्र पत्रकार, पटकथा लेखक व गीतकार हैं।
Leave a Reply