फिलौरी : फिलौर की धरोहर की पैसेंजर ट्रेन
दीप जगदीप सिंह
Rating 2/5
Cast – Anushka Sharma, Diljit Dosanjh, Suraj Sharma, Raza Murad
Writer – Avnita Dutt | Director – Anshai Lal
कुछ फिल्में उतनी ही मज़ेदार होती हैं, जितनी वह ट्रेलर में नज़र आती हैं। ऐसी फिल्में ट्रेलर में जितनी हट के लगती हैं, बस उतनी ही हट के होती हैं।
ख़ास कर तब जब इन हट के लगने वाली फिल्मों के लिए माहौल ज़ोरदार प्रमोशन से बनाया जाए। ऐसी फिल्मों को बेहद उम्मीद लेकर देखना आम तौर पर जोखिम भरा होता है। फिलौरी ऐसी ही ओवर हाईप्ड हटके फिल्म है जिसे ट्रेलर से आगे देखना भारी पड़ सकता है।
रईसज़ादा रैपर कनन (सूरज शर्मा) तीन साल कैनेडा में रहने के बाद अपनी बचपन की प्रेमिका अनु (महरीन कौर पीरज़ादा) से शादी करने के लिए अमृतसर लौटता है। अभी वह जहाज़ में सोते हुए सपने में ही घोड़ी चढ़ा है कि उसे अपनी शादी में आने वाली बाधाएं नज़र आने लगी हैं। बंगले में लैंड करते ही उसकी कुंडली में मांगलिक दोष निकलता है और यो यो हनी सिंह का नया अवतार थोड़ी आनाकानी करने के बाद पेड़ से शादी करने के राज़ी हो जाता है। कायदे के अनुसार मांगलिक से शादी के बाद पेड़ काट दिया जाता है। काट दिया तो काट दिया, लेकिन समस्या यह है कि उस पेड़ में रहती थी शशी (अनुशका शर्मा) की आत्मा। शादी पेड़ से हुई और पत्नी बन गई शशी जो कनन की गाड़ी में बैठ कर उसके साथ उसके बंगले में आ गई और रात को उसके बिस्तर के ऊपर मंडराने लगी। वह इतनी भोली भूतनी है कि उसे यह तो पता है कि कनन की शादी उससे हुई है लेकिन यह नहीं पता कि वह उसके साथ क्यों अटक गई है। अभी कनन अपनी भूतनी पत्नी से पहली मुलाकात की दहशत से निकल नहीं पाया है कि उसकी बचपन की प्रेमिका और पांच दिन बाद बनने वाली पत्नी को को उसके बदले हुए व्यवहार की चिंता सताने लगी है। उसे कनन का दिन-रात गांजे के सूटे खींचते रहना इसका कारण लगता है। भारी-भरकम पंजाबी शादी के मंडप में बुनी गई दो आधुनिक प्रेमी-प्रेमिकाओं और भूतनी के करीब सौ साल पुराने इश्क और मौत का रहस्य खोजती यह कहानी कभी हंसाने, गुदगुदाने की कोशिश करती है तो कभी भावुक करते हुए कूछ मूल सामाजिक मसलों पर गहरी चोट करती है। लेकिन इस सब में वह दर्शकों को बांधे रखने मे कितना सफल होती है आईए देखते हैं।
फिल्म का मूल प्लाट योयो हनी सिंह टाइप कैनेडियन रिटर्न युवक, बचपन की प्रेमिका और भूतनी से शादी पहली नज़र में देखने में एक रौचक किस्सा लगता है। कागज़ से पर्दे पर उतरते हुए यहां तक की कहानी भी उतनी ही दिलचस्प लगती है और गुदगुदाती भी है। इसके बाद लेखक और निर्देशक के पास तीनों के विरोधाभासों में से अनेक मनोरंजक और गहरे दृश्य निकालने के विकल्प मौजूद हैं, लेकिन वह क्या चुनते हैं और उसे पर्दे पर कैसे उतारते हैं दर्शक को बांधने के लिए एक अहम कड़ी है। अफसोस लेखक अनविता दत्त और निर्देशक अनशाय लाल इस मामले में बड़ी चूक कर जाते हैं।
फिलौरी के सबसे सशक्त पहलू इसके किरदार, इसका माहौल और इनका आपस में विरोधाभास है। इक्कसीवीं सदी की आधुनिक प्रेम कहानी में असुरक्षा है, पारिवारिक मूल्यों की अतिरेकता है (एक बिस्तर में होने के बावजूद दोनो की इस दूसरे को ना छूने की शर्त), मांगलिकता का अंधविश्वास है, लेकिन नायक का प्रेम की ख़ातिर उसको भी पार करना प्रेम की परिपक्कवता का भी प्रमाण है। उसके विपरीत अठानवें साल पुरानी शशी-फिलौरी की प्रेम कहानी बेलौस है, उसमें खुलापन है, लाख बंदिशों के बावजूद प्रेम नदी के बहाव में बह जाने की तरंग है, प्रेम से बुराई को अच्छाई में बदलने की उम्मीद है, प्रेम के लौट आने का सुरक्षित भरोसा है। फिलौरी की पटकथा इस सवाल को पूरी सटीकता से उठाती है कि हम माॅर्डन होते हुए असल में कितने अ-आधुनिक हैं और इतिहास में हम कितने रूढ़िवादी होते हुए भी हम कितने आधुनिक थे।
फिलौरी (दिलजीत दोसांझ) फिलौर गांव के बाहर लफंगों के डेरे का उस्ताद है। दारू में टुन रहना, गांव की चहकती ‘कबूतरियों’ को दाना डालना और उनके छतरी पर बैठते ही उनका हरण कर लेना उसका शुगल भी है और कारोबार भी। फिर तूंबे (इकतारा) की इक तार पर मस्त मौला की तरह नाच-नाच कर ‘गांव की सब लड़कियों का तूंबा बजा के नाचूं’ गाते हुए शोहदों की भीड़ का मनोरंजन करना उसकी दिनचर्या है। बाहर डेरे का नायक फिलौरी गांव के अंदर बदनाम है, उसकी शोहरत डेरे के बीयाबान तक सिमटी है। उस समय की चर्चित पत्रिका प्रीतम पर्चे में फिलौरी के नाम से छपते अदबी कलाम को वह ऐसे शान से पढ़ता है, जैसे यह उसी का लिखा हो और गांव भी यही समझता है। फिलौरी यह भी मानता है कि कविताई से एक अंग्रेज़ी शराब की बोतल भी नहीं खरीदी जा सकती। इन दोनों बातों में ही उसका नायकत्व है, गांव के निठल्ले शराबी शोहदों का तो वह हीरो है ही, उसकी आवाज़ और अंदाज़ की शौदाई होकर खिलती कलियां भी चोरी छिपे उसके इस भौंडेपन का आनंद लेती हैं,
अपने एक पांव की झांजर (पायल) उसकी चैखट पर लटका कर वह फिल्लौरी के बिस्तर तक एक दूसरी से आगे निकल जाना चाहती हैं। वह चैखट पर लटकती अनेक में से रोज़ एक पायल उतार कर उसकी दूसरी कड़ी के ज़रिए अपने लिए अगली समर्पित कली की पहचान कर लेता है। यह सिलसिला तब तक चलता रहता है, जब एक दिन अचानक अपने भाई के संस्कारों, गुरबाणी और अक्षर ज्ञान से बौद्धिकता की अलगी सीढ़ी चढ़ चुकी शशी के सीधे हाथ का एक थप्पड़ उसके चेहरे के साथ-साथ उसके अह्म पर भी एक गहरा निशान छोड़ जाता है। उसके बाद फिल्लौरी रांझा हो जाता है, दम-दम गाते हुए शशि के निरछल प्रेम का दम भरता है। दारू और शौहदेबाज़ी से मुंह मोड़ लेता है, लड़कियों का तूंबा बजाने के गीत की धुन बनाने वाला उसका तूंबा धूल फांकने लगता है। अब वह वो फिल्लौरी होना चाहता है जो प्रीतम पर्चे में छपता है, जिसके नाम की रौशनी पूरे पंजाब में फैली है, अदब से जुड़ी है। शशी के कहे मुताबिक उसकी आवाज़ रब की मेहर है, जो किसी को भी बदलने का दम रखती है, अब उसे उतने ही असरदार बोलों की तलाश है, जो वह कोशिश करके भी लिख नहीं पाता। ऐसी कलम केवल फिलौरी के पास है, वह फिलौरी उसकी शशि है। यह गायक फिलौरी के अदबी फिलौरी से मिलन का किस्सा है। जिस में वह मिर्ज़ा गाते हुए भी मिर्ज़ा नहीं बनता (मिर्जा साहिबा को घर से भगा के ले जाता है और दोनों साहिबा के भाई के हाथों मारे जाते हैं, आॅनर किलिंग इन एनशियेंट ऐज), वह अपनी पात्रता साबित करने के लिए प्रयत्न करता है।
शशि का भाई डाॅक्टर (मानव विज) परंपरा में होते हुए पारंपरिक विलेन नहीं है। वह इतिहास का वह तक्षक है जो लाॅजिक से अच्छाई और बुराई की पहचान करता है। जब उसे अहसास होता है कि रूप लाल फिलौरी (दिलजीत दोसांझ) उसकी बहन शशि फिलौरी को (अनुशका शर्मा) को उसकी बनती पहचान और मान देता है तो वह परंपरा के नाम पर बहन का कत्ल करने की बजाए उसकी शादी की तैयारी करता है। वह साहिबा का कातिल नहीं शायर शशि का डाॅक्टर भाई बनता है, वो भी सौ साल पहले। आज के दौर में कितने भाई हैं जो प्रेम के प्रतिकार से छिन्न-भिन्न बहन के दिल पर हल्दी वाला दूध पिला कर मरहम लगाते हैं, जिसके लिए डाॅक्टर नहीं भाई भर होना होता है।
आधुनिक कनन भी यथार्थपरक किरदार है, इस सदी की ज़्यादातर युवाओं की तरह मतिभ्रमित है, प्रेम से परिपूर्ण है, लेकिन फिर भी यूज़ एंड थ्रो वाला प्रेमी नहीं है। भूतनी की व्यथा से व्यथित है तो अनु की बेचैनी से बेचैन भी, परिवार का भी फिक्र है। अनु भी दस साल ‘गो अराउंड’ करने के बावजूद, प्रेमी के गंजेड़ी और निकम्मा होने के बावजूद कमिटेड है, उसकी ज़िंदगी का बस यही लक्ष्य है, कनन के साथ हैप्पी मैरिड लाइफ। कनन की दादी, संभ्रांत परिवारों की प्रतीक है, सुबह नौ बजे व्हसकी का पैग लगाते हुए ग्रामोफ़ोन पर बेग़म अख़्तर सुनते हुए और दादा की बिस्तर में दमदार कलाकारी के बेबाक बयान बड़ी सहजता से कर सकती है, लेकिन उसके लिए भी 1919 की जलियावाला बाग की बैसाखी उनकी ज़िंदगी का सबसे भयावह दिन है। प्रीतम पर्चे वाला प्रीतम सिंह (रज़ा मुराद) संस्कृति के वाहक का प्रतीक है, जो ना सिर्फ पर्चे के ज़रिए अदब को पंजाब की जड़ों तक पहुंचाता है, बल्कि ग्रामोफोन महिफिलों के ज़रिए कला, अदब और संगीत के संगम के ज़रिए एक उजले समाज की परिकल्पना भी करता है। वह हुनरमंद कलाकारों को ढूंढ कर उन्हें पहचान भी दिलाता है। यह किरदार पंजाबी के कद्दवार साहित्यकार गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी ( प्रीतलड़ी पर्चे अमृतसर वाले) की सोच से भी प्रेरित है और पंजाब के उन अनेक संगीत उस्तादों की शख्सियत का रंग भी उसमें घुला है, जिन्होंने कलाकारों को ढूंढ-ढूंढ कर ना सिर्फ उन्हें तराशा बल्कि रिकार्ड करवा कर उन्हें पहचान भी दिलवाई। वह ना सिर्फ मनोरंजन उद्यौग का पुरोधा है बल्कि ज़मीनी स्तर पर संस्कृति और समाज से भी जुड़ा है, स्वतंत्रा संग्राम में दिलचस्पी लेता है। उसका बामुश्किल दो मिनट का किरदार प्रमुख किरदारों जितना ही अह्म है।
फिलौर का नाम आते ही श्रद्धा राम फिलौरी याद आते हैं, जिनकी लिखी आरती ‘ओम जय जगदीश हरे’ आज भी दुनिया भर में रहते असंख्य भारतीयों के घरों में गूंजती है। इसके साथ ही सिखों को देहधारी गुरू से शबद गुरू से जोड़ने वाले, ख़ुद महान कवि और आदि-ग्रंथ के पहले संपादक गुरू अर्जुन देव याद आते हैं, फिल्लौर जिनके विवाह का मंडप था। इब्ने इंशा के नाम से चर्चित उर्दू शायर शेर मोहम्मद ख़ान और साहिर लुधियानवी के जिगरी यार शायर कृष्ण अदीब का जन्म भी फिलौर में हुआ। उसके साथ ही यह ज़मीनी हकीकत कि 2001 की जनगणना के अनुसार फिलौर की साक्षरता दर केवल 28 प्रतिशत है जिसमें 24 प्रतिशत पुरूषों की तुलना में 33 प्रतिशत महिलाओं की साक्षरता दर का इतिहास भी फिलौरी फ़िल्म में मिलता है, जिसमें डाॅक्टर भाई अपनी बहन शशि को पढ़ाने पर ज़ोर देता है ताकि वह सुसंस्कृति महिला बन सके। राष्ट्रीय दर से फिलौर की साक्षतरा दर आधी होने के बावजूद वहां से इतने बड़े अदबी लोग निकलना और फिलौरी नाम से फिल्म बनने पर उसके नायक और नायिका के किरदारों का शायर होना फिलौर की अदबी और संस्कृति धरोहर की पहचान विश्व-स्तर पर करवाता है, जो अब तक लगभग नज़रअंदाज़ है। अंग्रेज़ों ने भी फिलौर को एक महत्वपूर्ण रेलवे जंक्शन के तौर पर विकसित किया था, जिस वजह से यह उत्तर भारत में व्यपार का प्रमुख केंद्र बना। लगता है अनविता की गाड़ी इसी लिए फिलौर जंक्शन पर आकर रुकी।
इस फिल्म को समझने के लिए पंजाब को जानना बेहद ज़रूरी है। उड़ता पंजाब में यो यो हनी सिंह की फूहड़ता और उसके संस्कृति व समाज पर असर की भयावह तस्वीर देखने के बाद फिल्लौरी पंजाबी संगीत की अदबियत की, संस्कृति और समाज में इनके महत्व को पुनःस्थापित करने की एक अनजानी कोशिश भर है। इसके साथ ही इसमें सैक्स काॅमेडी, गे काॅमेडी, व्हसकी काॅमेडी, रोमेंटिक काॅमेडी भी है, प्रेम और रिश्तों की भावनात्मकता भी है, मनोरंजन का हर मसाला है। गहरी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और आधुनिक मनोरंजक मसाला होने के बावजूद यह बेहद कमज़ोर फिल्म है। इसकी कमज़ोरी इसकी गति में भी है और एग्ज़ीक्यूशन में भी। इतने सशक्त किरदारों और उनको अपनी क्षमता के शिखर तक जा कर निभा रहे कलाकारों को निर्देशक अपनी सीमित क्षमता के दायरे में ही प्रयोग कर पाया। लेखिका भी इन किरदारों को गढ़ने और कहानी का बीज डालने के बाद दमदार दृश्य लिखने और पटकथा को संभालने के मामले में आज़िज हो गई लगती हैं। इतनी रिसर्च और मेहनत का व्यर्थ चले जाना अखरता है। अनविता की दाद इस बात के लिए दी जा सकती है कि उन्होंने इतिहास की एक अहम घटना के अंदर एक किरदार को बड़ी ही बारीकी से फिट किया है, जिस पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता। फिल्म की शुरूआत में इतिहास से छेड़छाड़ ना किए जाने की लंबी घोषणा का औचित्य अंत में आकर ही समझ आता है।
लाइफ आॅफ पाई का गंभीर सूरज शर्मा बेहद कुशलता से फिलौरी में अपने चेहरे के ज़रिए अपना मन बयान करता है। उसका प्रत्येक भाव आपको हंसाता है और उसकी ऊहापोह में आप भी शामिल हो जाते हैं। अनुशका शर्मा एक फ्रेंडली भूतनी के इस किरदार के लिए याद की जाएंगी। बावजूद इसके कि वह ज़रूरत से ज़्यादा चिट्टी (गोरी) लगती हैं। उनकी चांदनी सा चमकता गाऊन और गिर्द उड़ता सितारों का घेरा वीएफएक्स के बेहतरीन प्रयोग का नमूना है। अंत में फिलौरी से शशि के मिलन के वीएफएक्स भी कमाल के हैं। दिलजीत खुशकिस्मत हैं कि उन्हें वैसे ही मस्तमौला किरदार मिल रहे हैं, जैसे कि वह असल जीवन में हैं। इसी वजह से उन्हें अदाकारी के लिए ख़ास मेहनत नहीं करनी पड़ती, हमेशा की तरह वह फिलौरी होते हुए भी पर्दे पर दिलजीत बने रह सकते हैं और सहज भी लगते हैं। उनकी वेशभूषा और माहौल पर काफी डिटेल में काम किया गया है, जिसका असर उनके किरदार को और गहराई देता है। महरीन इस किरदार में फिट बैठी हैं और सहज लगती हैं। सारे सहायोगी कलाकार भी एकदम सटीक बैठे हैं और अपनी भूमिका पूरी संजीदगी से निभाते हैं।
पटकथा की ख़ामिया बनी बनाई कहानी का बंटाधार कर देती हैं। यह समझ नहीं आता कि मांगलिक की पेड़ से शादी करने के लिए पंडित कनन को अमृतसर से एक सौ सत्ताईस किलोमीटर दूर फिल्लौर ही क्यों लाता है। क्या अमृतसर सरहद से लेकर फिल्लौर तक रास्ते के किसी भी पेड़ की कुंडली कनन की कुंडली से नहीं मिलती?लेखिका ने प्राकृति के साथ भी ख़ास सेटिंग कर ली लगती है, जब एक जीवित मां अपनी कोख में पल रहे बच्चे को नौ महीनो से ज़्यादा चाह कर भी नहीं रख सकती तो समझ नहीं आता की अठानवें साल बाद भी भूतनी की कोख में बच्चा कैसे पल रहा है। ना उसके अंदर रक्त है, ना मांस फिर भी वह पोषित हो रहा है। लेखक निर्देशक ने कनन को अतीत कथा शशि के ज़रिए सुनाई है। जिसमें वह मौजूद थी वह बातें तो वह बता सकती है, लेकिन फिलौरी के साथ अमृतसर में हुई घटना जिसका फिलौरी (जो मर चुका है) के सिवा केवल प्रीतम (मारे गए या बचे कुछ स्पष्ट नहीं किया गया) सिंह को पता था, वह लेखक-निर्देशक ने किसके ज़रिए बताई या यहां वह दोनों खुद ही अचानक सूत्रधार बन गए। यह भी समझ से परे की बात है कि क्या जो लोग जिस जगह मार दिए जाते हैं, उनकी आत्माएं मरने की बाद वहीं भटकती रहती हैं। फिर शमशान और कब्रिस्तान में कौन सी आत्माएं मिलती हैं। अगर जलियावाला बाग में फिलौरी की आत्मा शशि का इंतज़ार कर रही थी तो जो बाकी आत्माएं थी, उनके परिवार कब तक पहुंचेगे। सुन रहीं है अनविता, अगर ब्रिटिश सरकार के आंकड़े भी मान लिए जाएं तो 379 कहानियां आप और लिख सकती हैं। फिलहाल इतना तय है कि देश से मांगलिकता और हिंदी फिल्मों से ‘मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली हूं’ टविस्ट का ग्रहण हटने वाला नहीं है।
अभी इतना शुक्र मना सकते हैं कि किसी पंजाबी सेना ने ‘इतिहास से छेड़छाड़’ करने के बहाने फिलौरी के निर्माता, निर्देशक या लेखक को शूटिंग के सैट पर जाकर पीटा नहीं है। वैसे भी इतना भेजा खुजाने की क्या ज़रूरत है, प्रेम, गुदगुदाहट और संस्कृति का यह संगम एक बार भर देखने लायक तो है ही। अगर आपको धीमी गति की फिल्मों में नींद नहीं आती या आप अनिद्रा के शिकार हैं तों यह फिल्म आराम से देख सकते हैं।
*दीप जगदीप सिंह स्वतंत्र पत्रकार, पटकथा लेखक व गीतकार हैं।
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