दीप जगदीप सिंह । रेटिंग 2.5/5
फिल्म में दिलवाले हैं लेकिन उनकी कोई कहानी नहीं। मोहब्बत तो है लेकिन दीवानगी नहीं। रोहित शैट्टी ने अपने चिर-परिचित अंदाज़ में फिल्म में एक्शन और कॉमेडी के साथ रोमांस
और ड्रामा का तड़का तो भरपूर लगाया है लेकिन वह एक सधी हुई कहानी परोसना भूल गए। पर्दे पर रंग हैं, हंसी है, धमाका है, मस्ती है, लेकिन रूह नहीं है। यहां तक के यह फिल्म अपने टाइटल को भी जस्टीफाई नहीं कर पाती। बुलगारिया के डॉन रणधीर (विनोद खन्ना) का बेटा राज उर्फ काली (शाहरूख ख़ान) 15 साल पहले ख़ुद भी डॉन हुआ करता था। एक दिन अचानक वह मीरा (काजोल) से टकरा जाता है और उसकी मोहब्बत में बह जाता है लेकिन एक मोड़ पर जाकर दोनों आपस में टकरा जाते हैं तब पता चलता है कि वह रणधीर के दुश्मन मलिक (कबीर बेदी) की बेटी है। दोनों के रास्ते ऐसे अलग होते हैं कि राज सब कुछ छोड़ कर गोआ में आकर कार मोडिफाई करने वाला मैकेनिक बन जाता है और अब उसकी जि़ंदगी उसका छोटा भाई वीर है (वरूण धवन) है, जिसकी जि़ंदगी ईशिता (कृति सनन) बन चुकी है, जो मीरा की बहन है। कहानी वहीं आकर थम जाती है कि क्या दोनों अलग हुए प्रेमी अगली पीढ़ी का प्रेम मिलन होने देंगे।
फिल्म का पहला हाफ किरदारों की लंबी चैड़ी भीड़ की एंट्री करवाने में ही गुज़र जाता है, यहां तक निर्देशक के पास मुख्य किरदारों की रोमेंटिक कैमिस्ट्री बनाने के लिए भी वक्त नहीं है और वह दोनों में प्यार का पहला अहसास जगाने के लिए हॉलीवुड फिल्म आई मैट योअर मदर का सीन हूबहू उठा लेते है। लेकिन इस मोहब्बत भरे सीन में जो अतरंगता शाहरूख और काजोल की पहली फिल्मों में हमने देखी है वो बिल्कुल नज़र नहीं आती और यह एक फास्ट फूड रोमांस बन कर रह जाता है। ऐसा ही कुछ निर्देशक ने वीर और इशिता की मोहब्बत के मामले में किया है मैगी नूडल्स की तरह उनका प्यार भी दो मिनट में पक जाता है और उसकी सेहत के लिए कितना ख़तरनाक है वह उसे बाद में जा के पता चलता है। ऐसा लगता है जैसे रोहित शैट्टी को रोमेंटिक मोड से निकल अपने पसंदीदा एक्शन मोड में जाने की जल्दी रहती है। पूरे सक्रीन प्ले में ऐसा लगता है कि जैसे निर्देशक ने तय कर रखा है कि पहले एक कॉमेडी सीन आएगा, फिर एक्शन, फिर रोमांस और फिर गाना यह चक्कर पूरी फिल्म में किसी रोबोट की तरह चलता रहता है। इस चक्कर में ना रोमांस पूरी तरह से दिल को छू पाता है, न एक्शन रौंगटे खड़े कर पाता है, कॉमेडी एक पल के लिए हंसाती है और अचानक से आ गया गाना ब्रेक दिलाता है।
कितनी हैरानी की बात है कि काली रणधीर का सड़क से उठाया हुआ बेटा है, फिर भी उसकी उम्र उसके दूसरे बेटे से पंद्रह साल छोटी है और मलिक की दोनों सगी बेटियों की उम्र में भी पंद्रह साल का फर्क है। उससे भी बड़ी हैरानी की बात है कि काली और मीरा दोनों गोआ आते हैं लेकिन पंद्रह साल तक वह कभी आपस में नहीं मिलते। फिर अचानक जब वीर और ईशिता को प्यार होता है तो दोनो रोज़ एक ही सड़क से गुज़रने लगते हैं। मलिक का जो ख़ास आदमी खुद ही मीरा को फोन करके काली के धोखे की झूठी ख़बर देता है, कुछ ही पल बाद भाई बन कर उसको मीरा और ईशिता की फिक्र होने लगती है, लेकिन फिर भी 15 साल तक लगातार संपर्क में रहने के बावजूद वह मीरा को असलीयत क्यों नहीं बताता? पंद्रह साल बाद अचानक ऐसा क्या होता है कि मीरा के एक बार पूछने पर ही वह सारा कुछ आराम से बता देता है। अभी और हैरान होना है तो सुनिए, एक एक्शन सीन में शाहरूख ख़ान की कार उल्टी हो जाती है और उसके बाद लगभग एक मिनट के सीन में उल्टी गाड़ी की ड्राईविंग सीट पर बैठे शाहरूख का ना सिर छत से टकराता है ना वह सीट से गिरते हैं ना हिलते हैं, बिल्कुल वैसे ही बैठे रहते हैं जैसे सीधी कार में बैठे हों। आज समझ आया कि रोहित शैट्टी के बारे में यह क्यों कहा जाता है कि उनकी फिल्मों में गुरूत्व आकर्षण की शक्ति भी फेल हो जाती है। राज भाई मुझे भी अपनी कार में ऐसी सीट बेल्टं लगवानी है, आप कार मोडाफाई करते हैं ना। एंटी क्लाईमैक्स में जब मीरा राज को सबके सामने उसके असली नाम काली से पुकारती है तो आख़री सीन में फिर भी वीर और इशिता को उनकी सिर्फ राम लाल और पोगो वाली कहानी ही पता है, यह बात हाजमोला से भी हज़म नहीं हो रही है।
जब तक है जान से ही शाहरूख की उम्र उनके चेहरे से झल्कने लगी है। काजोल आज भी पर्दे पर ख़ूबसूरत लगी हैं, लेकिन उनका ज़रूरत से ज़्यादा किया गया मेकअप ट्रॉम वाले सीन में साफ झलकता है। वरूण धवण गोविंदा के नक्शे कदमों पर चलते हुए नज़र आते हैं, लेकिन ज़रूरत से ज़्यादा लाऊड होने की वजह से उनके इमोशन सीन में भी हंसी आ जाती है। वरूण शर्मा की टाइमिंग बहुत अच्छी है लेकिन उन्होंने अपने का को रीपीट ही किया है। कृति सनन बार्बी डॉल सी लगीं है, उसके अलावा उनके पास कुछ करने के लिए है भी नहीं था। हां जब वह काली और मीरा को दोबारा मिलाने की कोशिश कर रही होती है तो कुछ कुछ होता है कि नन्हीं अंजलि ज़रूर याद आती है। प्यार का पंचनामा के अंदाज़ वाला लड़कियों पर उनका मोनोलॉग भाषण प्रभावहीन रहा है। बड़े अर्से बाद जॉनी लीवर को एक बार फिर खुल कर कॉमेडी करने का मौका मिला है, जिसे उन्होंने बखूबी भुनाया है, लेकिन उनके बोलने का लहजा एक समय पर जाकर अखरने लगता है। संजय मिश्रा छोटे से किरदार में लुभा गए हैं और उनका अंदाज़ लोटपोट करता है। सबसे मज़ेदार कॉमेडी सीन वह है जब मुकेश तिवारी और पंकज त्रिपाठी, वरूण धवन और वरूण शर्मा को राम लाल और पोगो वाली झूठी कहानी सुनाते हैं। इस सीन को देखते हुए आप हंसते-हंसते कुर्सी से गिर सकते हैं, इसलिए पेट छोड़ कर कुर्सी पकड़ लीजिएगा। इस सीन को देख कर अमिताभ बच्चन के कुली फिल्म वाले रेडियो पर रेसिपी सुनकर ऑमलेट बनाने वाला सीन याद आ जाता है। बोमन ईरानी पूरी तरह से वेस्ट किए गए हैं।
फिल्म का संगीत पहले ही लोगों के दिल पर छाया हुआ है लेकिन पटकथा में मनमा इमोशन जागे और जनम जनम गीत जब्रदस्ती ठूंसे हुए लगते हैं। टुकर टुकर गीत एंड क्रैडिट्स पर आता है। सिनेमेटोग्राफर डडले ने बुल्गारिया और गोआ के विहंगम और रंगों भरे दृश्य बेहद सलीके से फिल्माए हैं जो फिल्म को एक बड़ा कैनवस प्रदान करते हैं। सुनील रोड्रिग्स का एक्शन रोहित शैट्टी के अंदाज़ के अनुकूल है। बंटी नागी की एडिटिंग भी सधी हुई है, अगर वह रोहित शैटी को मना पाते तो फिल्म की लंबाई पंद्रह से बीस मिनट कम हो सकती थी। अमर मोहिले का बैकग्राउंड स्कोर फिल्म की टोन को बनाए रखता है।
अगर आप शाहरूख-काजोल की जोड़ी के डाई हार्ड फैन हैं और उनकी एक झलक पाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं तो यह फिल्म देख सकते हैं। याद रखिएगा सिर्फ झलक। बोनस में आपको कुछ हंसी और एक्शन भी देखने को मिलेगा। एक बात और जाते वक्त दिमाग़ फ्रीज़र में रख के जाईगे, दो घंटे चालीस मिनट बाद आपको ज़रूरत पड़ेगी। मेरी तरफ से भाई प्रेम के लिए इस फिल्म को ढाई नम्बर।
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