
कुछ स्मृतियां हमारे दिलो-दिमाग पर समय के पद चिन्ह की तरह उकेरी जाती हैं। प्रेम से भरे पंजाबी कथाकार राम सरूप अणखी की स्मृति में डलहौज़ी में हुई कथा विचार गोष्ठी मेरी आत्मा पर उकेरी गई अमिट इबारत बन गई है। कोठे ख़डक सिंह (हिंदी में ‘कहानी एक गांव की’ शीर्षक से प्रकाशित) जैसे कालजयी नॉवेल के सृजक बाबा अणखी के साथ संक्षिप्त परंतु स्नेह भरा ज़ुड़ाव रहा है। साहित्यक आयोजनों में जब भी उन से मुलाकात होती तो वह बड़े अपनेपन से मिलते। वैसा ही स्नेहिल रिश्ता उनके श्रवण पुत्र क्रांतिपाल से बन गया है।
अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्स्टिी में आधुनिक भारतीय भाषाओं के विभाग में प्रोफ़ैसर डा. क्रांतिपाल ने बाबा अणखी की विरासत को पूरी योग्यता से संभाला है। बाबा की हथेलियों से संचित हो कर कल्प वृक्ष बनी साहित्यक पत्रिका ‘कहानी पंजाब’ क्रांतिपाल के कर्मशील हाथों में यूजीसी से मान्यता प्राप्त शोध पत्रिका का दर्जा हासिल कर चुकी है। बाबा अणखी और मनमोहन बावा की प्रेम से सराबोर दोस्ती से स्फुटित हुई डलहौज़ी कथा गोष्ठी का बाबा के देहवसान के चौदह साल बाद भी पुष्पित-पल्लवित होना बादस्तूर जारी है। अब इसे राम सरूप अणखी समृति कथा गोष्ठी के नाम से जाना जाता है।
साल 2024 में डलहौज़ी कथा गोष्ठी 32वें वर्ष में प्रविष्ट हुई। मुझे डलहौज़ी कथा गोष्ठी का पहला निमंत्रण 2014 में तब आया जब मेरी पहली कहानी ‘उड़ान’ प्रमुख पंजाबी साहित्य पत्रिका में प्रकाशित हुई। अफ़सोस चाहते हुए भी मैं एक दशक तक इस गोष्ठी में ना जा सका। इस अर्से के दौरान मुझे लगातार डॉ. क्रांतिपाल के उलाहनों के बाण सहने पड़े। पिछले साल तो गोष्ठी से ठीक एक दिन पहले मुझे जाने का कार्यक्रम रद्द करना पड़ा था। इस बार मेरी तरफ़ से जाना नियत था, लेकिन उनके मन में तब तक शंका बनी रही जब तक मैं डलहौज़ी के यूथ हॉस्टल नहीं पहुंच गया।
आज राम सरूप अणखी स्मृति कथा गोष्ठी के बारे में लिखते हुए मैं अपनी अनुपस्थिति के लिए ख़ुद को कटघरे में ख़डा कर रहा हूं। सिर्फ़ इस स्वीकृति से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि डलहौज़ी कथा गोष्ठी कितनी अहमियत रखती है। इस की सबसे बड़ी ख़ासियत और आकर्षण यह है कि डॉ. क्रांतिपाल ने इसे पंजाबी कथा गोष्ठी से विस्तार दे कर राष्ट्रीय कथा गोष्ठी का विहंगम मंच बना दिया है, जहां से समूचे देश की कथाकारी के दृश्य को एक नज़र में देखा जा सकता है। अगर करीब आकर ग़ौर से देखें तो यह भारतीय कथाकारी की धूनी महसूस होती है, जिस के गिर्द जमा हो कर कथा के सृजक और चिंतक साधु विभन्न भाषाओं की कथा का यज्ञ करते हुए नज़र आते हैं। आओ आप को डलहौज़ी कथा गोष्ठी के ख़ूबसूरत सफ़र पर ले कर चलता हूं।
लुधियाना से सुबह पांज बज कर पांच मिनट पर धौलाधार एक्सप्रेस पकड़ कर करीब आठ चालीस पर पठानकोट जंक्शन पहुंचा। भला हो वट्सऐप का कि बाबा अणखी के शहर बरनाला से भूपिंदर सिंह बेदी और हरीश शर्मा स्टेशन पर मिल गए। डलहौज़ी के लिए टैक्सी पठानकोट कैंट की तरफ़ मोड़ दी जहां देहरादून से आए असफ़ल तख़लुस्स वाले सफ़ल कथाकार अरूण कुमार असफ़ल हमारे जत्थे में शामिल हो गए।
पठानकोट से डलहौज़ी तक के सफ़र के दौरान देश की राजनीति, साहित्य की सियासत, गुटबंदी, मठों के एकाधिकार और विभिन्न भाषाओं के साहित्य के उत्थान और पतन पर गहन चर्चा हुई। देसी पहाड़ी ढाबे से कुरकुरी मट्ठियों के साथ कड़क चाय की चुस्कियों ने हमें पहाड़ी सफ़र के लिए तैयार कर दिया। पहली बैठक शाम को होने वाली थी और हम गोष्ठी में होने वाली गर्मा-गर्म चर्चा का माहौल रास्ते में ही बना रहे थे। दोपहर के भोजन से पहले हम डलहौज़ी के यूथ हॉस्टल में पहुंच गए। आते ही चाय नाश्ते के साथ हमारा स्वागत किया गया। करीब दो घंटे आराम करने और खाना खाने के बाद हम गोष्ठी की अखंड धूनी रमाने के लिए तैयार थे।
गोष्ठी का आरंभ कथाकार केसरा राम के संचालन में सभी की जान-पहचान से हुआ। हरीश शर्मा ने राम सरूप अणखी की कहानी संकरी गली का पाठ किया। इस स्मृति पाठ के बाद वरिष्ठ कथाकार एवं आलोचक डॉ. अब्दुल बिस्मिल्लाह सहित हम सब ने राम सरूप अणखी को श्रद्धा-सुमन अर्पित किए। डॉ. क्रांतिपाल ने कथा गोष्ठी की शुरूआत से लेकर अब तक के सफ़र के बारे में भावपूर्ण अंदाज़ में बताया।
अगली बैठक में अहमदाबाद से आए युवा गुजराती कथाकार एवं भारतीय साहित्य अकादमी से युवा पुरस्कार विजेता राम मोरी की कहानी ‘रंग’ चर्चा के केंद्र में रही। कहानी औरत के अस्तित्व के सवाल को उस के रंगों के चुनाव से रेखांकित करती है। कथ्य की सरलता से साथ-साथ अकथित में छुपी हुई कथा इस कहानी का हासिल रही। उपस्थित अधिकांश टिप्पणीकारों ने इसे नर-नारी के परस्पर आकर्षण तक सीमित करते हुए देखा जबकि कहानी रंगों के आशय तक पहुंचने वाली आत्माओं का गीत प्रस्तुत करती है। सूरज बड़त्या ने हिंदी कहानी ‘फैमली नेम’ के ज़रिए जापान और भारत के अंदर जातीय भेदभाव के विमर्श का तुलनात्मक दृश्य प्रस्तुत करते हुए भारतीयों के अंदर गहरी पैठ बना चुके जातिवाद को रेखांकित किया। कृष्ण कुमार आशु ने अपनी राजस्थानी कहानी ‘पहचान’ द्वारा पहचान हासिल कर लेने के बावजूद उपेक्षित समूह के व्यक्ति के प्रति समाज के उपेक्षा भरे नज़रिए को प्रकट किया।
तीसरी बैठक में दो कहानियां ने ध्यान खींचा। जम्मू से आए जगदीप दूबे की डोगरी कथा ‘सेंक्शन’ ने उत्तर-मानववादी काल में मनुष्य जीव एवं प्रकृति के सह-अस्तित्व का वृतांत बहुत ही मार्मिक कथ्य के माध्यम से प्रस्तुत किया। यह कहानी एक फ़ौजी और फ़ौजी प्रशिक्षण प्राप्त कुत्ते की आपसी जुड़ाव के मध्य पसरी सियासत और युद्धनीति के सिद्धांतों को रेखांकित करती है। दूबे इस कहानी के माध्यम से मानव उत्कंठा की पूर्ति के लिए जीव एवं प्रकृति दोनों की बलि चढ़ाने के दोगलेपन का पर्दा चाक करती हुई कुछ गिने-चुने मानवों में बची हुई मानवता से सबक लेने का आह्वान करती है। कहानी में गुथे हुए आवेग का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि कहानी सुनाने के बाद जगदीप दूबे को ख़ुद सहज होने में कई मिनट लगे।
ध्यान आकर्षित करने वाली दूसरी कहानी मैथली कथाकार श्रीधरम की कहानी ‘ब्रह्म न्याय’ रही। यह कहानी कथित ऊंची जाति के विद्वानों (प्रोफ़ैसरों) द्वारा कथित निम्न जाति के व्यक्ति के तरक्की कर जाने के बावजूद रूढ़िवादी धार्मिक असूलों के बहाने जातिवादी भेदभाव करने पर कटाक्ष करती है। एक तरफ़ ऊंची जाति के पात्र छुआछूत की वजह से निम्न जाति के भोज में नहीं जाना चाहते। फिर भी वह निम्न जातीय पात्र को मिले नए ऊंचे पद से होने वाले लाभ की लालसा नहीं त्याग पाते। दरअसल दावत खाने जाना सभी चाहते हैं लेकिन नहीं चाहते कि निम्न जाति पात्र की दावत खाने पर उन की अपनी उच्च जाति के लोग धर्म भ्रष्ट करने का उलाहना दें। व्यंग्य भरपूर अंदाज़ और चुस्त भाषा और संवादों की वजह से यह कहानी भरपूर कथारस उत्पन्न करते हुए गंभीर सवालों से मुख़ातिब होते हुए जातिवादी समाज पर तीखी चोट करती है। इस कहानी को डार्क ह्यूमर की कोटि में रखा जा सकता है। अलीगढ़ से आए तौसीफ़ बरेलवी ने आर्टिफिशल इंटेलिजेंस के दौर में पर्यावरण और मानवीय संवदेनाओं से बचे रहने के मसले को उर्दू कहानी पाताल की दुखती रगें में उतारा।
चौथी बैठक में जातिवादी समस्याओं को उभारती हुई दो कहानियां, अरुण कुमार असफ़ल की हिंदी कहानी ‘पुर्न-जागरण’ और डॉ. भरत कुमार ओला की राजस्थानी कहानी ‘रूह’ पढ़ी गईं। इस विषय पर पढ़ी गई कहानियों से महसूस होता है कि आज भी बड़ी आबादी को प्रभावित करती यह समस्या कथाकारों को कथा-वस्तु के लिए भरपूर सामग्री प्रदान करती है। पंजाबी का प्रतिनिधित्व करते हुए युवा कथाकार अल्फ़ाज़ ने स्मार्ट फ़ोन द्वारा पारिवारिक रिश्तों में पैदा हो रही दरारों को चिह्नित करती कहानी ‘लूज़र’ पढ़ी।
कथा गोष्ठी के दौरान भारतीय साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित हिंदी कथाकार एवं विचारक डॉ. अब्दुल बिसमिल्लाह ने हर कहानी पर विचार व्यक्त करते हुए कथाकारी की बारीकियों पर प्रकाश डाला। सब से पहला नुक्ता यह था कि कहानी में ‘कथा’ होनी चाहिए। ख़बरों या घटनाओं को जोड़ देने से कहानी नहीं बन जाती। उन्होंने आंतोन चेखव, लियो टॉलस्टॉय और हारुकी मुराकामी सहित विश्व के प्रमुख कथाकारों के हवाले से कहा कि कथाकार को अपनी कहानी में मौजूद आत्म-मुग्ध कर देने वाले तत्वों के मोह से मुक्त हो कर लिखने के बाद अपनी कहानी को बारीक छननी में से निकालना चाहिए। चर्चा के दौरान उन्होंने अनेक कहानियों की सृजन प्रक्रिया के पीछे के दिलचस्प किस्से सुनाए, जिस से कहानी गोष्ठी में रोचक माहौल बना रहा।
गोष्ठी में अपने-अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने पहुंचे कथाकार और विचारक नीलाभ, मुकेश मिरोठा, भूपिंदर सिंह बेदी, रजिंदर बिमल, हरीश शर्मा, कमलानंद झा और दीप जगदीप सिंह ने पढ़ी गई कहानियों पर कथा-शैली, कथा-शास्त्र, कथा-रस और कहानी के विषयों में आलोचनात्मक एवं रचनात्मक टिप्पणियां की, जिन्हें कथाकारों ने खुले मन से स्वीकार किया। राम सरूप अणखी समृति कथा गोष्ठी की यही ख़ासियत है कि इस में बेबाक और बेलौस संवाद होता है और हर कथाकार एवं विचारक संवाद और ज्ञान गंगा में स्नान कर लौटता है।
दूसरी बड़ी ख़ासियत हर दिन की बैठकों के बाद यूथ हॉस्टल की मैस, बगीचे और सोने वाले कमरों के बंक बेडों के मध्य होने वाली अनौपचारिक गोष्ठियां रही। इन स्नेह संवादों में विभन्न भाषाओं के साहित्य, साहित्य क्षेत्र की सियासत और साहित्यकारों के अपने साहित्यक सफ़र के बारे में बातों का सिलसिला नींद के आगोश में चले जाने तक जारी रहता।
पंजाबी मेहमान-नवाज़ी के अलाव को गर्माय रखने के लिए युवा शोधार्थी दया राम ने दिन-रात एक कर दिया। सुबह शाम डॉ. क्रांतिपाल द्वारा हॉस्टल के एक-एक कमरे में चहल-कदमी करते हुए सब को नाश्ते, चाय और खाने का न्योता देते हुए, एक सूत्र में जोड़े रखना आत्मीयता भरा अहसास छोड़ गया। इसी लिए मैं बार-बार ख़ुद को सवाल कर रहा हूं कि आख़िर दस साल तक मैं इस राष्ट्रीय कथा गोष्ठी से ग़़ैर-हाज़िर क्यों रहा। अगली बार फ़िर मिलने के वादे और कथाकारी की धूनी के सदा जलते रहने की अरदास के साथ, चढ़दी कला!
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