दीप जगदीप सिंह
नफरत की थीम पर बनी हेट स्टोरी 3 में नफरत कम, पैसे और हवस की भूख ज़्यादा है, बावजूद इसके विक्रम भट्ट की कहानी में सस्पेंस आखिर तक बना रहता है कि आखि़र यह सब हो क्यों रहा है और इसके पीछे कौन है, लेकिन यह फिल्म हेट स्टोरी से ज़्यादा रेस स्टोरी लगती है, जिसमें दो भाई अपनी चालाकी की रफ्तार से एक दूसरे को मात देने पर आमादा हैं। इसमें नायिका केवल मोहरे की तरह इस्तेमाल होती है, जबकि हेट स्टोरी सीरीज़ की पहली दो फिल्मों में मूल कथानक औरत द्वारा नफरत और बदले की भावना से प्रेरित होकर किसी भी हद तक चले जाने के गिर्द स्थापित किया था। यही इसकी यूनीकनेस्स थी। नफरत और बदले की चर्म सीमा पुरूषों में भी हो सकती है अपनी सीरिज़ की पहली फिल्मों से हटके करने की कोशिश में हेट स्टोरी थ्री उस भीड़ में शामिल होकर रह जाती है जहां ऐसी अनंत फिल्में भरी पड़ी है।
कहानी बिल्कुल सिंपल है एक छोटा भाई है आदित्य (शर्मन जोशी) उसकी एक गर्ल फ्रैंड है सीया (ज़रीन ख़ान) जिससे उसका भाई विक्रम (प्रियांषू चैटर्जी) प्यार करता है और सीया भी, लेकिन सिर्फ आदित्य के कहने पर ताकि वसीयत में विक्रम के नाम हुई सारी प्रापर्टी को वह हासिल कर सके। आदित्य मानसिक तौर इतना कमज़ोर है कि उसे सीया पर भी भरोसा नहीं है और वह सीया के सहयोग से अपने भाई को मार देता है। पूरी जायदाद और बिजनेस तो उसे मिल जाता है लेकिन फिर ना जाने कहां से एक अनजाना दुश्मन सौरव सिंघानीया (करन सिंह ग्रोवर) आ जाता है, जो आदित्य से मनचाही डील के बदले सीया की एक रात मांग लेता है। फिर साजिशों, चालों, हवस और कत्ल का ऐसा सिलसिला शुरू होता है कि परत दर परत खुलते हुए भी रहस्य और गहराता चला जाता है, जिसमें आदित्य की सेक्रेटरी काया डेज़ी शाह भी उलझ कर रह जाती है। आखि़र हो क्या रहा है यह रहस्य अंत तक बना रहता है, जिसे समझदार दर्शकों के लिए समझना इतना मुश्किल भी नहीं है।
निर्देशन के मामले में विशाल पंडया कथानक को कस्स के पकड़े रखते हैं और दर्शक को अपने साथ लेकर चलते हैं, लेकिन जैसे ही दर्शक को लगता है कि उसने रहस्य का सिरा पकड़ लिया है, वह उसमें ऐसा जब्रदस्त मोड़ लाते हैं कि दर्शक हैरान हुए बिना नहीं रह पाता। एरोटिक रिवेंज स्टोरी के genre की इस फिल्म में जहां बदले की भावना चरम सीमा पर है वहीं अतरंगी दृश्यों की भी भरमार है। अतरंग दृश्य शुरू सहजता ते होते हैं लेकिन अतिरेकता की वजह से थोड़ी देर बाद ही वह जब्रदस्ती ठूंसे हुए और भौंडे लगने लगते हैं। कई जगह पर तो ऐसे दृश्य बिल्कुल बेमेल हैं।
निर्देशक और लेखक ने सीना ठोक कर सिनेमेटिक फ्रीडम ली है। कहानी में ऐसे ऐसे झोल हैं जिनके बारे में सोच कर मन में सवाल आता है कि फिल्मकार ने दर्शकों को समझ क्या रखा है। अगर आदित्य सीया को सीढ़ी बना कर विक्रम की जायदाद ही हासिल करना चाहता था तो फिर दोनों की शादी और प्रापर्टी मिलने से पहले ही उसका कत्ल करने की क्या ज़रूरत थी। अगर कत्ल ही करना था तो अपनी गर्लफ्रेंड को बड़े भाई के पास भेजने की क्या ज़रूरत थी, वो भी तब जब गर्लफ्रेंड पर भी भरोसा नहीं था। अगर करन सिंह ग्रोवर को सीया को सिर्फ अपना टैटू ही दिखाना था तो उसके साथ रंगरलियां मनाने की क्या ज़रूरत थी। वह उन्हे बीच पार्टी पर भी बुला सकता था या स्विमिंग पूल में डुबकी लगा सकता था। उससे भी ज़्यादा अपने दोस्त का बदला लेने के लिए उसी की पत्नी की आबरू से खेल कर वो क्या सबित करना चाहता था। विक्रम में जितनी करीबी से बम हाथ में पकड़ रखा था और जिस बम से पूरे प्लेन के परखचे उड़ गए, लेकिन विक्रम की सिर्फ चमड़ी जली। ऐसा बम कहां मिलता है विक्रम और पंडया भाई हमें भी बता दो। इसके लिए सीबीआई को अब्बास अली मुगल की जांच ज़रूर करनी चाहिए। अगर सौरव सिंघानिया आदित्य को फंसाना ही चाहता था तो उसे बचाने के लिए भी सबूत उसने क्यों तैयार करवाए। काया को खुद मार कर उसका इल्ज़ाम आदित्य पर ना आकर किसी मवाली पर आ जाए इसका इंतज़ाम उसने पहले से ही क्यों करवाया। ऐसा प्यारा दुश्मन तो सूरज लेकर ढूंढना पड़ेगा पंडेया साहब। क्लाईमैक्स में जब आदित्य और सीया एक कोने में फंस गए, जहां से बच के निकलने का कोई रास्ता था ही नहीं, सौरव सामने गन लेके खड़ा था तो सीया को चाल चलने के लिए समाने आना पड़ा। तब आदित्य कौन सी सुरंग खोदकर या कैसे मिस्टर इंडिया बन कर सौरव के पीछे पहुंच गया, मुझे वो तरीका सीखना है, मां कसम कमाल ख़ान के घर में घुस कर चूहे छोड़ के आयूंगा। प्रापर्टी हासिल करने के लिए आदित्य को अपनी गर्लफ्रेंड अपने भाई के पास भेजने पर कोई एतराज़ नहीं था, तब भी एतराज़ नहीं हुआ जब उसने भाई का गुप्त टैटू देखा। लेकिन जब सौरव ने भेजने के लिए कहा तो उसे नफरत का कीड़ा क्यों काट गया। अगर सचमुच उसे यह बात इतनी ही बुरी लगी थी तो अपनी ख़ासमख़ास सैक्रेटरी काया को क्यों खुद उसके पास सोने के लिए भेज दिया। वाह विक्रम बाबू वाह! मान गए आपकी दिलदारी को। अभी यार ज़्यादा बोलूंगा तो बोलोगे कि बोलता है। है तो और भी बहुत कुछ ख़ैर गागर में सागर कबूल करें। वैसे गागर भी थोड़ी बड़ी हैं, सो डोंट माइंड प्लीज़, हैं…
अदाकारी के मामले में शर्मन, करन, ज़रीन और डेज़ी सभी ने अपने किरदारों को जीने की भरपूर कोशिश की है। जितना विहंगम शर्मन का किरदार है अपनी पहले से बनी हुई छवि की वजह से वह उतने विहंगम बिजनसमैन नहीं लग पाते हैं, लेकिन एक लालची, आहत और नफरत से भरे हुए भाई की भूमिका को पर्दे पर उतारने की भरकस कोशिश करते हैं। ज़रीन ख़ान एक मजबूर और भावनाओं में बह जाने वाली प्रेमिका और पत्नी के किरदार में एक मोहरा बन कर रह जाती हैं, निर्देशक ने भी उन्हें बस मोहरे के रूप में ही इस्तेमाल किया है। उनका भारी भरकम जिस्म उनके ढकने कम दिखाने ज़्यादा वाले कपड़ों में बाहर झांकता साफ दिखाई देता है। करन सिंह ग्रोवर भी अपने हाव-भाव में उतना कमीनापन नहीं ला पाए हैं, जितना उनका किरदार गढ़ा गया था। ना दर्शक को उनसे नफ़रत हो पाती है और ना ही हमदर्दी। कुछ ऐसा ही हाल प्रियांषू का है, जो अपने पूरे करियर में बस थके से अंदाज़ मे ही संवाद बोलते रहे हैं। मेरी उनको सलाह है कि वह अपने तुम बिन वाले किरदार से बाहर आ जाएं तो उनके लिए बेहतर रहेगा। यहां संजय गांधी का ख़ास तौर पर जि़क्र करना चाहूंगा जो अपने हाव-भाव से कहानी के रहस्य को गहरा बनाए रखने में मदद करते हैं।
जाते जाते बता दूं सिनेमेटोग्राफर प्रकाश कुट्टी ने फिल्म की डार्क थीम को सहजता से पर्दे पर उतारा है और संगीत कथानक के अनुसार भावनाओं को व्यक्त करने में मददगार साबित होता है। वैसे दोनो आईटम सॉंग जब्रदस्ती ठूंसे हुए ही लगते हैं। हेट स्टोरी 3 देख के दर्शक भी बस आईटम ही तो बन के रह गया है। हेट स्टोरी 3 को थोड़ा लव थोड़ी हेट, फिफटी-फिफटी, हं…
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