Film Review | Mom | फ़िल्म | समीक्षा मॉम

-दीप जगदीप सिंह-रेटिंग 3/5

कथा – रवि उदयावर गिरीश कोहली कोना वेंकेट राओ
पटकथा एवं संवाद – गिरीश कोहली 
निर्देशक – रवि उदयावर

मॉम मैम से मां बनने की कहानी है। यह एक मां की कहानी है, जिसे उम्मीद है कि उसकी बेटी एक दिन उसे मैम नहीं मां कहेगी। यह एक बेटी की भी कहानी है जो सोचती है कि ‘मां की ज़िंदगी में बेटी आती है ना कि बेटी की ज़िंदगी में मां आती है।’
मॉम एक बार फ़िर यह भी प्रमाणित करती है कि पालने-पोसने वाली मां भी जन्म देने वाली मां जितनी ही ममतामयी हो सकती है। इसके अलावा मॉम कानून और न्याय व्यवस्था के चरमरा कर ध्वस्त हो चुके उस दौर की भी कहानी है, जो अराजकता पनपने के लिए उर्वर भूमि प्रदान करने का माहौल पैदा करता है।
बॉयलॉजी टीचर देविका (श्रीदेवी) पढ़ाई और अनुशासन के मामले में सख़्त भी है और पढ़ाई को रोमांचक बनाने जितनी आधुनिक भी। दुनिया की नज़र में वह अपने बिजनेसमैन पति आनंद (अदनान सद्दीकी), बेटियों आर्या (सजल अली) और प्रिया के साथ हंसी-खुशी जीवन गुज़ार रही है, लेकिन आनंद की पहली पत्नी की बेटी आर्या अठारह साल की हो जाने के बावजूद आज भी ना अपनी जन्म देने वाली मां को भूल सकी है ना ही पालने वाली मां को अपना सकी है। वह अपने दिल की बात सिर्फ़ अपने पापा से करती है। उसने छोटी बहन प्रिया को तो अपना लिया है, लेकिन वह मॉम को मैम बुलाती है। बस यही एक ख़लिश है जो देविका के ममतामई सीने में चुभती है। फ़िर भी वह जल्दबाज़ी या ज़बर्दस्ती के हक में नहीं है। जब आनंद आर्या को एक बार फिर समझाने की बात करता है तो देविका उसे समझाते हुए कहती है, ‘उसे समझाने की नहीं हमें समझने की ज़रूरत है।’ यह दृश्य और संवाद किशोरों के मनोविज्ञान को समझने की बेहतरीन प्रेरणा देता हैं। अपनी रफ़्तार से चल रही ज़िंदगी में उथल-पुथल तब होती है, जब एक दिन आनंद को अपने काम के लिए विदेश जाना पड़ता है। तभी आर्या का सहपाठी दुर्दांत गुंडे जगन (अभिमन्यू सिंह) और कुछ साथियों के साथ मिल कर उस का गैंग रेप कर देते है। इस घटना के बाद आर्या और देविका का रिश्ता ऐसे मोड़ पर आ जाता है जहां पर देविका ख़ुद से, ज़माने से और अपनी बेटी का विश्वास हासिल करने के लिए लड़ रही है, वहीं आर्या अकेलेपन में अपने शारीरिक और मानसिक ज़ख़्मों से उबरने की कोशिश कर रही है। क्या देविका अपने और आर्या के बीच की खाई पाट पाएगी? क्या पंगु हो चुकी कानून व्यवस्था से निराश देविका अपनी बेटी को इंसाफ़ दिला पाएगी? मॉम की कहानी इसी के इर्द-गिर्द घूमती है, जिस में उसकी मदद करने के लिए प्रोईवेट डिटेक्टिव दयाशंकर उर्फ़ डीके (नवाज़ुद्दीन सद्दीकी) है और उसे राेक कर कानून की बेड़ियों में जकड़ने के लिए मैथ्यू फ्रैंकिस (अक्षय खन्ना) है।

film review mom movie review sridevi nawazuddin siddiqui,

मॉम की कथा उतनी ही पुरानी है जितनी पुरानी महिलाओं के यौन शोषण की व्यथा है। हाल में बॉलीवुड इस मसले पर पिंक, काबिल, मातृ जैसी फ़िल्में बना चुका है। पिंक जहां ठोस तरीके से यौन शोषण करने वालों और शोषित लड़कियों की मनोस्थिति को पकड़ती है, वहीं कानून के माध्यम से इंसाफ़ का रास्ता तलाश करती है। वहीं काबिल और मातृ कानून की ख़ामियों को ढाल बना कर कानून अपने हाथ में लेकर इंसाफ़ के तराजू को बराबर करने की कोशिश करतीं है। मॉम की कहानी तो काफ़ी हद तक मातृ से मेल खाती है, यहां तक कि रवीना टंडन और श्रीदेवी का किरदार भी एक जैसा है। लेकिन मॉम के पास श्रीदेवी, नवाज़ुद्दीन सद्दीकी और अक्षय खन्ना सहित सहयोगी कलाकारों की दमदार अदाकारी का साथ है और एक लगभग कसी हुई पटकथा है जो दर्शक को सीट के सिरे पर अटकाए रखती है।

रवि उदयावर, गिरीश कोहली कोना और वेंकेट राओ ने मां-बेटी (श्रीदेवी-सजल अली) के द्वंद, बाप की बेटी के प्रति असुरक्षा (नवाज़ और उसकी बेटी) की भावना और अपराध और कानून के टकराव (श्रीदेवी-अक्षय खन्ना) बहुत ही बारीकी से गुंथ कर कहानी गढ़ी है। गिरीश कोहली की पटकथा काफी हद तक बांध कर रखने में सफ़ल होती है एवं संवाद दर्शकों के मन की भावनाओं को पोषित करते हुए आसानी से जुड़ जाते हैं। फ़िर भी लेखन के मामले में ना तो यह कोई नई या अनोखी कहानी है ना ही निर्देशन के मामले में रवि उदयावर ने कुछ नया करके दिखाया है। फ़िल्म की दो चीज़ें- ट्रीटमेंट और सशक्त अदाकारी ही मॉम को एक मज़बूत फ़िल्म बनाती हैं।

फ़िल्म का पहला हिस्सा किरदारों की आत्मीयता और उनके अंतरद्वंदों के मध्य फैला हुआ है। रवि ने गैंगरेप की दृश्य को बेहद सहजता से फ़िल्माया है, जहां पर बिना कुछ दिखाए भी दर्शकों के मस्तिष्क में वह तस्वीरें उभारी हैं, जो वह हर रोज़ मीडिया में देखते रहते हैं। यहां पर एआर रहमान का बैकग्राउंड स्कोर एक किरदार की तरह उपस्थित रहता है और अपनी उपस्थिति दर्ज भी करवाता है। यह दृश्य भारतीय सिनेमा में रेप के दृश्यों फ़िल्माने के रूढ़ीवादी ढर्रे को भी तोड़ता है। रवि ने ट्रीटमेंट के मामले में लाईटिंग का बेहतरीन इस्तेमाल किया है और लम्बे अर्से बाद किसी फ़िल्म में बिना बोले लाइटिंग के ज़रिए कहानी कही गई है। चाहे वह हर रोज़ सरकते पर्दे के ज़रिए आर्या के अंदर लौटती जीवन की रौशनी हो या देविका का रात के अंधेरे से रौशनी में झांकना हो।
मॉम की दूसरी ख़ासियत है बिना संवाद बोले हाव-भाव से बात कहना। देविका का बेटी के साथ ही घटना की पहली जानकारी मिलने के बाद पेट पकड़ कर रोना और नवाज़ुद्दीन का छत पर चाय देने आई बेटी के साथ बिना कोई संवाद किए सोच में डूबे हुए फैसला लेना इस की सटीक उदाहरण है। इस मामले में नवाज़ छोटे रोल में भी श्रीदेवी पर भारी पड़ते हैं। दूसरा हिस्सा कानून से निराश हो चुकी आर्या के अंदर अपने लिए विश्वास पैदा करने के लिए देविका के बदला लेने का सिलसिला है। इस मामले में लेखक और निर्देशक पहले अपराधी को ‘सज़ा’ देने के मामले में तो कुछ नवीनता दिखाते हैं लेकिन उसके बाद कहानी पुराने ढर्रे पर चली जाती है। यही वजह है कि कहानी कई मौकों पर सुस्त हो जाती है। जिसे निर्देशक ने श्रीदेवी की दमदार अदाकारी के भरोसे चलाने की कोशिश की है, लेकिन अंत तक आते-आते वह फ़िल्म को एक मसाला फ़िल्म बनने से रोक नहीं पाते और मॉम का क्लाईमैक्स एक साधारण बदले की भावना वाली कहानी का अंत बन कर रह जाता है। यहां पर सवाल खड़ा होता है कि जब गैंगरेप की घटनाएं आम होती जा रही हैं तो क्या उस दौर में इंसान के लिए पीड़ित को हमेशा कानून को अपने हाथ में लेना होगा? क्या हर आम पीड़ित कानून को छका कर हर बार अपना बदला ले सकेगा? कम से कम गंभीर सामाजिक समस्याओं पर सिनेमा को यथार्थपरक होना होगा। सवाल तो यह भी खड़ा होता है कि एक आम बॉयोलॉजी टीचर इस हद तक जा सकती है। फ़िल्म है चलता है! इतनी सिनेमेटिक स्वतंत्रा कब तक चलेगी? इस मामले में पिंक एक यथार्थपरक फ़िल्म साबित होती है।
अदाकारी के मामले में श्रीदेवी ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि उनका दम अभी बाकी है। करीब पांच साल पहले इंगलिश-विंगलिश के बाद एक बार फ़िर श्रेदेवी दमदार अदाकारी के साथ मॉम को यादगार बनाती हैं। लेकिन निर्देशक ने उन पर इतना ज़्यादा बोझ डाला है कि बाकी कलाकारों को खुल कर सामने आने का मौका नहीं दिया। अक्षय खन्ना हैरान करते हैं, क्राईम ब्रांच के सूपर कॉप के रूप में वह गहरी छाप छोड़ते हैं। लेकिन निर्देशक उनके किरदार में भी विरोधाभास से बच नहीं पाते। एक पुलिस अफ़सर जो अपने काम में दख़ल दिए जाने से गुस्सा हो जाता है वही अंत में कानून को हाथ में लेने का पक्षधर हो जाता है। ऐसे किरदारों में अक्षय खन्ना से भविष्य में भरपूर संभावनाएं हैं। पहली बार पर्दे पर उतरी सजल अली काफ़ी प्रभावशाली हैं। लेकिन अपने अब तक के सबसे विल्क्षण किरदार नवाज़ुद्दीन सद्दीकी अपनी छोटी सी भूमिका में सबको मात देते हुए नज़र आते हैं। लकवे का शिकार हुए किरदार का ज़िक्र करना भी बनता है। हस्पताल के बिस्तर पर लेटे हुए वह जिस तरह से कहानी में अह्म भूमिका निभाते हैं वह कहानी का अह्म हिस्सा है। अम्य गोस्वामी की सिनेमेटोग्राफी फ़िल्म को विहंगम परिदृश्य प्रदान करती है। वह दिल्ली और कुफ़री को कहानी के मांग के अनुसार बेहतरीन तरीके से पर्ते पर उतारते हैं। इसके साथ ही रौशनी और परछाई का भी बाखूबी प्रयोग करते हैं। मां के ममतामई समपर्ण के लिए, श्रीदेवी और नवाज़ुद्दीन के लिए यह फ़िल्म ज़रूर देखी जा सकती है।

दीप जगदीप सिंह स्वतंत्र पत्रकार, पटकथा लेखक व गीतकार हैं।*

ज़ाेरदार टाइम्ज़ एक स्वतंत्र मीडिया संस्थान है, जाे बिना किसी राजनैतिक, धार्मिक या व्यापारिक दबाव एवं पक्षपात के अाप तक ख़बरें, सूचनाएं अाैर जानकारियां पहुंचा रहा है। इसे राजनैतिक एवं व्यापारिक दबावाें से मुक्त रखने के लिए अापके अार्थिक सहयाेग की अावश्यकता है। अाप 25 रुपए से लेकर 10 हज़ार रुपए या उससे भी अधिक सहयाेग राशि भेज सकते हैं। उसके लिए अाप नीचे दिए गए बटन काे दबाएं। अाप के इस सहयाेग से हमारे पत्रकार एवं लेखक बिना किसी दबाव के बेबाकी अाैर निडरता से अपना फ़र्ज़ निभा पाएंगे। धन्यवाद।


by

Tags:

एक नज़र ईधर भी

Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You cannot copy content of this page