दीप जगदीप सिंह
सलमान ख़ान जैसा बड़ा सितारा, सूरज बड़जात्या जैसा नामचीन निर्देशक, हॉलीवुड की धड़ल्लेदार निर्माता कंपनी फॉक्स स्टार, कभी सबसे भद्दे फैशन के लिए चर्चित हुई सोनम कपूर जो अब अपनी पीआर के दम पर फैशन दीवा है, पिटा हुआ ग्रे शेड कलाकार नील नीतिन मुकेश, खुद का ‘जानी दुशमन’ अरमान कोहली, दर्जन के करीब ठूंसे हुए गाने, राजस्थान के ऐतिहासिक महल, अयोध्या के घाट और मंडप, कुछ चुलबुले वन लाईनर, कुठ भावुक संवाद, अनंत रंग, विहंगम दृश्य, यूपी-बिहार की बोली का तड़का, एक और सलमान ख़ान (अरे डबल रोल है ना!) नो फैमिली, जस्ट फैब्रिकेटेड इमोशन एंड ड्रामा, लाईन चाहे फिल्म की अवधी जितनी लंबी है, लेकिन एक ही लाईन में बताना तो हो बस यही है प्रेम रत्न धन खोयो ओह! आई मीन पायो…
Film Review | Salman Khan | Sonam Kapoor | Prem Rattan Dhan Payo |
प्रेम दिलवाला (सलामन ख़ान) अध्योध्या में अपनी नाटक मंडली चलाता, रामलीला दिखाता है। रामलीला से जो भी चंदा इक्ट्ठा होता है वह समाज सेवी संस्था उपहार को दान कर देता, क्योंकि जब पिछली बार बाढ़ आई थी तो उपहार की संचालिका राजकुमारी मैथिली (सोनम कपूर) अपने उड़नखटोले पर बैठ कर खुद राहत सामग्री बांटने आई थी। वह राहत सामग्री क्या बांट कर गई, प्रेम दिलवाला की दिल की राहत साथ में ले गई। बेचैन दिलवाला बस एक झलक उसे देखने के लिए उपहार के दफ्तर चंदा जमा करवाने लगा, इस बार जब वह चंदा जमा करवाने गया तो उसे पता चला कि राजकुमारी मैथली अपने मंगेतर राजकुमार विजय सिंह (सलमान ख़ान मूछ वाले) के राजतिलक के भव्य आयोजन पर प्रीतमपुर पहुंच रही हैं, अगर वो चाहे तो इस बार चंदे का डिब्बा सीधा जाकर उन्हें वहीं दे सकता है। फिर क्या दिलवाले बाबू लिए लंगोटिए कन्हैया को साथ और कटा लिए सीधा बस का टिकट और चल दिए प्रीतमपुर। इधर अपने प्रेम बाबू बस में बैठे हैं उधर राजकुमार विजय अपने राजतिलक की तैयारी कर रहे हैं उनके सबसे ख़ास सेवक दीवान जी (अनुपम खेर) घराने परंपरा के अनुसार राजकुमारी मैथली का स्वागत करने के लिए राजकुमार विजय की बहनों चंद्रिका (स्वरा भास्कर) और राधिका (आशिका भाटिया) को न्यौता देने की सलाह देते हैं। लेकिन पिता की रखेल (लता सभ्रवाल) की बेटी चंद्रिका जो राजकुमारी की सहपाठी भी है और जो शाही परिवार की संपत्ति में हिस्सा और पारिवारिक सम्मान ना मिलने से आहत उनसे कोई रिश्ता नहीं रखना चाहती। राजकुमार विजय, दीवान के कहने पर बहन को न्यौता देने पहुंच तो जाते हैं, लेकिन बहन वकील को सामने कर देती है। आहत होकर राजकुमार अपनी घोड़ागाड़ी में गुस्से में वापिस चल देते हैं और एक साजिश के तहत उन्हें पहाड़ से नीचे गिरा दिया जाता है, जिसमें शामिल है उनका चालक छुट्टन (मुकेश भट्ट)। दीवान को पहले से पता है कि यह साजिश राजकुमार के सौतेले भाई अजय सिंह (नील नीतिन मुकेश), उनकी पीए (समैरा राओ) और एस्टेट के सीईओ चिराग़ (अरमान कोहली) की रची हुई है। होता यह है कि बुरी तरह से जख़्मी राजकुमार, दीवान को मिल जाते हैं और वह उन्हें महल के एक गुप्त तहख़ाने में वह उनका इलाज शुरू करवाते हैं।
इधर राजकुमार का विश्वासपात्र सुरक्षा अधिकारी (दीपराज राना) बाज़ार में खरीददारी करते हुए प्रेम दिलवाले से टकरा जाता है, फिर क्या उसके दिमाग की बत्ती जल जाती है और वह प्रेम को राजकुमार विजय बना कर असली राजकुमार के ठीक होने तक उसे महल में रखने की योजना बनाता है, जिस पर दीवान राज़ी हो जाता है। जानदार रामलीला का अदाकार प्रेम चुटकी बजाते ही मोजे सहित राजकुमार के जूते पहन लेता है (आई मीन गैट इन द शूज़ ऑफ प्रिंस) और चल देता है राजकुमारी का स्वागत करने। राजतिलक तक साथ रहने आई राजकुमारी सख़्त दिल अन-रोमैंटिक राजकुमार को उल्हाने देती है तो उसे खुशी देने के लिए अपना डुप्लीकेट राजकुमार उर्फ प्रेम एक आज्ञाकार प्रेमी की तरह उसकी हर ख्वाहिश पूरी कर देता है। घंटी तब बजती है जब उसके नए प्रेमपूर्ण रूप से अतिउत्साहित राजकुमारी से अतरंगी होते होए उसे अपने बदन पर अपने प्रेम की पाती लिखने को कहती है। राम-भक्त प्रेम दिलवाला इमानदारी से इस नाटक को खत्म कर चले जाने की आज्ञा लेने दीवान के पास आता है तभी पता चलता है कि लगभग ठीक हो चुके राजकुमार का अपहरण अजय सिंह ने कर लिया है। राजकुमार को लौटाने के बदले चिराग़ दीवान के हाथ आ चुके छुट्टन और प्रेम को मांग लेता है। प्रेम आख़री कुर्बानी देने के लिए उसके साथ चला जाता है और फिर होता है एक्शन और ड्रामा और अंत में इमोशन ढेर सारा इमोशन। विलेन मर जाता है, भाई-भाई, भाई-बहन का मिलन हो जाता है। राजतिलक भी हो जाता है और प्रेम विदा लेता है। ये हुई ना हैप्पी एंडिग अरे रुकिए कहां चल दिए पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त! उफ सूरज बड़जात्या जी, काहे 20-20 के दौर में टिप-टिप टैस्ट मैच खेल रहे हैंए तो हां हम कहां थे, हां पिक्चर में बाकी यह है कि अभी प्रेम दिलवाला को, प्रेम रत्न धन पाना है! वो कैसे पाएंगे, यह हम थोड़े ना बताएंगे, वो तो फिलिम देख कर ही पता चलेगा ना बाबू! ले दे के फिल्म में इतनी रेलम-पेल होने के बावजूद कहानी नदारद ही समझो!
यह तो हुई कहानी, अब समीक्षा भी कर ली जाए, ले देकर जो सलमान ख़ान का फील गुड फैक्टर मीडिया में अभी बना हुआ है, पूरी कहानी का ताना-बाना उसी के गिर्द-बुना गया है। बड़जात्या, रंगों, महलों, आयनों, पहाड़ों और शाही ठाठ-बाठ को पूरी वहंगम्ता से पर्दे पर उतारते हैं, लेकिन उनका पारंपरिक परिवार वाला इमोशन इन सब की भीड़ में कहीं खो जाता है। खो कहां जाता है जी, है ही नहीं। पूरी फिल्म में बस सलमान ख़ान ही छाए रहते हैं फिर वो चाहे प्रेम हो या विजय। अंत में पूरी फूटेज सलमान को देने के लिए दोनों रूपों में उन्हें दो अलग-अलग जगह पर फाईट करते दिखाया गया है। एक तरफ भूलभुलैया में प्रेम का चतुर एक्शन तो दूसरी तरह विजय का बाहुबली एक्शन। माने गुदगुदी भी और मारधाड़ भी। सलमान ख़ान बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे कि वह हर फिल्म में होते हैं। सोनम भी बिल्कुल वैसी ही लगी हैं जैसी वह हर फिल्म में लगती हैं यानि राजकुमारी तो छोड़ ही दीजिए फैशन दीवा भी नहीं लगी हैं। मेकअप की गड़बड़ भी काफी जगह दिखी है। उनकी लटके-झटके और प्रेम-लीला ज़रूर कुछ तालियां और कुछ आहें बटोर लेंगी। अनुपम ख़ेर ने भी वही किया है जो वह करते आएं हैं। स्वरा भास्कर और आशिका भाटिया के पास करने के लिए कुछ था ही नहीं और राजकुमारियों उनको सिर्फ बताया गया, दिखाया ही नहीं तो वो लगती कैंसे? कन्हैया के किरदार में दीपक डोबरियाल दर्शकों के चेहरे पर हंसी लाते हैं। अरमान कोहली बिग बॉस से ज़्यादा अच्छे अभी तक कहीं ओर नहीं लग पाए। दीपराज राना अपने किरदार को बाखूबी जी गए हैं।
संगीत हिमेश रेश्मिया की तरह पिटा-पिटाया है और फिल्म को और बोझिल बनाने में पूरी मदद करता है। कोई भी गीत फिल्म में सहजता से नहीं आता, सब ठूंसे हुए से ही लगते हैं। लेकिन दिए जलते हैं लिखने के लिए इरशाद कामिल की प्रशंसा करनी बनती है। प्रेम के भाव को जितने भावुक अहसास के साथ उन्होंने लिखा है, वैसा सक्रीन पर भले ही ना दिखाया जा सका गया हो, लेकिन बोल दिल को छूते हैं। लेकिन सलमान फिल्म के एक दृश्य में कैमल यानि उूंट को कामिल कह कर चिढ़ाते हुए नज़र आए हैं यह मुझे अटपटा लगा। भाई अगर कोई बिहाईंड दा सीन मसला था तो बिहाईंड दा सीन ही सुलझा लेते ना!
निर्देशन के बारे में मैं इतना ही कहूंगा कि लगता है जैसे बड़जात्या साहब ने यह फिल्म मजबूरी में बनाई है, उनका पक्का दर्शक उनकी मज़बूरी से ठगा सा महसूस कर रहा है। वेष्भुशाओं में भी कोई तालमेल नज़र नहीं आता, एक ही पल में कलाकार शाही एथनिक हो जाते हैं और अगले ही पल में कूल अर्बन। लगता है विहंगमता और राजशाही की एथंटिसिटी बनाए रखने के साथ-साथ बाड़जात्या फिल्म को यूथ ओरियेंटेड और सामकालीन बनाने के मध्य झूलते रहे हैं। बाड़जात्या जी एक और बात बताईए, यह जो अपनी राजकुमारी मैथिली के पास अपना चार्टेड हैलीकॉप्टर था, वो काहे नी लेकर आई प्रीतमपुर, का हैलीपैड का कोनो प्रॉबलम था, काहे पैसेंजर ट्रेन में आई वो समझे नहीं हम। और एक ठू बात, यह भी बता दीजिए की कौन महारानी आज के ज़माने में अपनी राजकुमारी को पूरा सामान पैक करके सीधे एक नौटंकीबाज के घर छोड़ने आ जाती है। अरे! भई मान लिया रिश्ता करना भी था, तो गरीब लड़के को महल भी लेजा सकती थीं ना। ख़ैर ई फिलिम देखे के चक्क्र में हमरा (बड़जात्या) प्रेम, रत्न (कीमती समय) और धन (टिकिट का पैसा) खोयो हो गया, हैंजी!
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