Film Review | सरदारजी 2

दीप जगदीप सिंह
रेटिंग 1/5
सबसे पहले बात यह कि सरदारजी 2 का पहले भाग से कोई लेना-देना नहीं है। इस लिए इसमें ना भूत पकड़ने वाला है, ना बोतल में बंद शरारती भूत हैं, ना ही हसीन भूतनी है और ही भूत पकड़ने का चक्कर है।

 

इस बार जगजीत सिंह उर्फ जग्गी खूह वाला (दिलजीत दोसांझ) एक सफल किसान बना है। प्राकृतिक तरीके से खेती करके उसने कई पुरस्कार जीते हैं और मनमौजी दिखने वाले जग्गी के बेकाबू गुस्से से सारा गांव वाकिफ़ है। गुस्से में वह कोई ना कोई पंगा करता ही रहता है और इस बार का पंगा उसे कुछ ज़्यादा ही महंगा पड़ गया है। उसे या तो छह महीने में अपनी पुश्तैनी ज़मीन, जिसके ज़रिए पूरे गांव को, पानी मिलता है वह छोड़नी होगी या फिर डेढ़ करोड़ हर्जाना भरना होगा। बस फिर क्या था अपनी ज़मीन और गांव की खेती बचाने के लिए वह डेढ़ करोड़ का इंतज़ाम करने उड़ जाता है आॅस्ट्रिेलिया। वहां जाकर भी मुसीबतें उसका पीछा नहीं छोड़ती। क्या वह इतनी जल्दी डेढ़ करोड़ कमा पाता है? क्या वह अपनी ज़मीन और गांव की इज्ज़त बचा पाता है, यही है सरदारजी 2 की कहानी।

इस बार लेखक धीरज रत्न और निर्देशक रोहित जुगराज ने फ़िल्म को इतना खुला छोड़ दिया है कि यह पहली वाली फिल्म से भी नीचे चली जाती है। यूं सरदारजी 2 की सबसे बेहतरीन बात जग्गी की दो परछाईयां, एक उसका गुस्सा और दूसरी उसकी विनम्रता, दोनों उसे बार-बार टोकते रहते हैं। किसी पंजाबी फिल्म में यह पहली बार देखने को मिला है जब मन के दो भावों को किरदरों के रूप में पर्दे पर उतारा गया है। फ़िल्म प्राकृतिक खेती के पक्ष में गंभीर संदेश देती है। चाहे बेहद हल्के से ही सही लेकिन सरदारजी 2 पंजाब की मौजूदा ज़मीनी सच्चाई को छूती है, जहां पर खेती पानी की कमी से जूझ रही है और इस वजह से गांवों में लोग आपस में लड़ रहे हैं। इसके साथ ही फ़िल्म किसानों को मुश्किल वक्त से अपने अंदर की दमदार पंजाबियत के ज़रिए लड़ने की सलाह देते हुए आत्महत्या से मुंह मोड़ने के लिए कहती है। यह पहली फ़िल्म है जिसमें जट्ट एक किसान भी है और खेती भी करता है।

शुरूआत से ही कहानी की पकड़ ढीली है और यह बांध कर रखने में सफल नहीं होती। कहानी एक जगह से दूसरी जगह तक उछलती कुदती रहती है जिसका कोई सिरा आपस में जुड़ता हुआ महसूस नहीं होता। दर्शक यही सोचता रह जाता है कि निर्देशक कौन सी राह पकड़ेगा। इंटरवल के पास जाकर जब दिलजीत आईसक्रीम का ट्रक लेकर एक अनजाने सफर पर निकल पड़ता है, तभी फिल्म एक दिशा पकड़ती है। यहां आकर फिल्म एक रोड ड्रामा बन जाती है। इंटरवल के बाद दिलजीत, उसकी अच्छी और बुरी परछाई, सोनी (मोनिका गिल) और दिलजोत (सोनम बाजवा) दर्शकों को हंसाने की पूरी कोशिश करते हैं, दर्शक भी हंसने की पूरी कोशिश करते हैं, लेकिन क्या करें हंसी है कि कुछेक मौकों के अलावा कहीं आती ही नहीं। किरदारों की काॅमेडी का  तालमेल तो ज़ब्रदस्त है, लेकिन जतिंदर लाल और सुरमीत मावी के संवाद अपना जादू नहीं चला पाते। बार-बार बड़े कद्दू और मूली का ज़िक्र होने से मज़ा और भी किरकिरा हो जाता है। जग्गी जब हर दूसरी बात पर सोनी को बांदरी और सूंडी कह कर बुलाता है तो हंसी आनी बिल्कुल बंद हो जाती है। जसविंदर भल्ला का पूरा ट्रैक ही कहानी में ज़ब्रदस्ती ठूंसा हुआ लगता है और बिल्कुल अलग-थलग चलता रहता है।

धीरज रत्न के ऐसी ज़मीनी कहानी लिखने की कोशिश की है जिसके ज़्यादातर किरदार आसपास के ही लगते हैं, लेकिन सक्रीन पर यही कहानी बिल्कुल बेसिर की हो जाती है और टुकड़ों में बिखर जाती है। रोहित जुगराज ने दिलजीत की शोहरत को तीन गुना भुनाने की कोशिश तो की है लेकिन सिनेमाईया आज़ादी के नाम पर सारी हदें ही पार कर गए हैं। अंत में आते-आते फिल्म भाषण बन जाती है और एक झटके से खत्म हो जाती है। हां, एक ख़ासियत और है कि निर्देशक ने फ़िल्म का सस्पैंस अंत तक बना के रखा है।

अदाकारी की बात करें तो दिलजीत, जग्गी, अथरे और सुथरे के तीन अलग-अलग रूपों में नज़र आया है, लेकिन हर रूप में ही किरदार कम और दिलजीत ज़्यादा लगता है। सुधरे के रूप में विख़्यात धार्मिक गायक जगाधरी वाले की मिमिक्री करने वाला उनका रूप उनके फैन्स को अवश्य गुदगुदाएगा। मिमिक्री करते हुए वह लहजा तो सही पकड़ लेते हैं लेकिन तीनों ही रूपों में हाव-भाव एक जैसा रहता है। जसविंदर भल्ला एक बार फिर निराश करते हैं; उनका लाहौर-पिशौर वाला चुटकुला एक मौके के बाद हंसाने की बजाए झुंझलाहट पैदा करने लगता है। देव सिंह गिल को समझना होगा कि वह साउथ से पंजाबी सिनेमा में आ चुके हैं। ओवर-एक्टिंग के मामले में कई दृश्यों में तो उनके हाव-भाव और संवाद ही मेल नहीं खाते हैं। अभिनेत्रियों में मोनिका गिल के हिस्सा काफी लंबा रोल आया है लेकिन पर्दे पर अपने रंग-बिरंगे कपड़े दिखाने के साथ ही वह एक ही भाव चेहरे पर लिए घूमती रहती हैं। उससे छोटी भूमिका में सोनम बाजवा ख़ूबसूरत तो लगी हैं लेकिन अदाकारी के मामले में अभी मेहनत उन्हें भी ख़ूब करनी होगी।

फिल्म का गीत-संगीत पहले ही पंजाबी दर्शकों के सिर चढ़ कर बोल रहा है लेकिन पटकथा में यह केवल रूकावट पैदा करते हुए उसे लटकाने में ही मदद करता है। संदीप पाटिल के कैमरे ने पंजाब और आॅस्ट्रिेलिया का ग्रामीण प्रवेश और नज़ारे दिलकश अंदाज़ में पर्दे पर उतारे हैं, जिन्हें देख कर मन को सुकून मिलता  है। बैकग्राउंड स्कोर ठीक-ठाक है। अगर एडिटिंग थोड़ी सी कसी होती तो फ़िल्म कम से कम आधा घंटा कम हो सकती थी। ज़मीनी सच्चाई दिखाने की कोशिश के लिए इस फिल्म को 1 स्टार दिया जा सकता है।
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