पंजाबी कहानी । मां-बेटियां । मनमोहन बावा

लड़कियों के लिए प्रेम आज भी टैबू है। वह प्रेम कर तो सकती हैं, प्रेम के बारे में बात नहीं कर सकती। लड़कियां केवल समाज से, परिवार से, मां से छिप कर ही प्रेम कर सकती हैं और फिर उसकी परकाष्ठा को वक्त और किस्मत के सहारे छोड़ देने के लिए मजबूर होती हैं। यह सच केवल ग्रामीण क्षेत्रों की ही नहीं शहरी मध्यवगीर्य लड़कियों का भी सच है। इस तरह पीढ़ी दर पीढ़ी लड़कियों के लिए प्रेम का मतलब बस घर के किसी कोने में सहेज के रखा वह ब्लैक-बाॅक्स होता है, जिसमें उसके प्रेम की समृतियां कैद है। मनमोहन बावा की पंजाबी कहानी मां-बेटियां एक अतीत के एक पुराने ब्लैक-बाॅक्स और वर्तमान में समृतियां समेट रहे नए ब्लैक-बाॅक्स के अंर्तद्वंद की ऐसी ही कहानी है। क्या इक्कसवीं सदी की मां-बेटियां मिल कर प्रेम के इस ब्लैक-बाॅक्स के अस्तित्व को कोई नया आयाम दे पातीं हैं, जानने के लिए पढ़िए कहानी का यह हिंदी अनुवाद-

पिछले आठ दस दिनों से राजी को महसूस हो रहा था जैसे किसी पहाड़ के शिलाखंडों में घिरे हुए झरने ने निकलने का रास्ता ढूंढ लिया हो। हज़ारों साल से किसी ग्लेशियर पर जमी मोटी बर्फ़ जैसे सूर्य की तपिश से पिघल कर बहने लगी हो। उसे यह दुनिया छोटी लगने लगी। अंतरमन सुगंधों और तरंगों से भर उठा।

 

रात होती तो सुबह का इंतज़ार करने लगती। सुबह बस-अड्डे पर वह उसका इंतज़ार कर रहा होता। काॅलेज के बाद एक-दो घंटे देर से घर लौटती। कभी एक बहाना बना देती तो कभी कभी दूसरा। मां उसकी ओर तिरछी नज़रों से देखती और चुप रह जाती।

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इस बार उसे होली भी बहुत रंगीन लगी। उसे लगा जैसे यह त्योहार तो बना ही उसके लिए है। वह पूरा दिन आसपास की लड़कियों संग ख़ूब जम कर होली खेलती रही, नाचती-गाती रही और उसके आने का इंतज़ार करती रही। फिर लड़के-लड़कियां की एक मंडली आई आई, नाचती, गाती, गुलाल उड़ाती। उस टोली में वह भी था, जिसका वह इंतज़ार कर रही थी।
उस वक्त राजी अपने घर से कुछ ही दूरी पर अपनी एक सहेली के घर के सामने खड़ी थी। ‘उस’ के हाथ में गुलाल का लिफ़ाफा था। वह आगे बढ़ा और राजी के संभलने से पहले ही उसने राजी का मुंह गुलाल से रंग दिया। राजी शर्म से पीछे की ओर दौड़ने लगी तो उसने राजी की कलाई पकड़ कर अपनी ओर खींच लिया। कांच की दो चूड़िया टूट गईं और उसकी कलाई पर लहू की पतली लकीर बन गई। उसके होंठ कुछ कहने के लिए हिले। अचानक रजनी की नज़र बालकोनी की तरफ उठी। मां वहीं खड़ी उसकी ओर देख रही थी। रजनी ने घबरा कर अपनी कलाई छुड़वाई और सहेली के घर के अंदर चली गई।
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कुछ देर बाद जब वह अपने घर की रसोई में काम कर रही थी तो वह सहमी हुई थी। उस की भावनाओं को जैसे विराम ही लग गया हो और मन में उछलते जवारभाटों की जगह डर बैठ गया हो। कई तरह की उत्सुकताएं उभर आईं;
‘मैंने पहला ही कदम बढ़ाया और पकड़ी गई। काॅलेज की लड़कियां क्या कुछ नहीं करती? किसी को पता भी नहीं चलता।’
वह रसोई में खड़ी पतीले में कड़छी चलाते हुए उस पल का इंतज़ार कर रही थी जब मां पास आकर पूछेगी और वह नज़रें झुका कर खड़ी रहेगी। मां को जब गुस्सा आता है तो वह क्या कुछ नहीं कह देती? बापू से ज़्यादा उसे मां से डर लगता था। बापू जी कई बार घर में हंसते-खेलते और माहौल को हल्का बनाए रखने का प्रयास करते रहते, पर मां हमेशा गंभीर ही रहती।
‘लेकिन मुझे क्या ज़रूरत है मां से इतना डरने की! मैंने ही कौन सा इतना बड़ा गुनाह किया है जो किसी दूसरी लड़की ने ना किया हो, या मां ने ही ना किया हो?’
उसे याद आया कि मां के ट्रंक में कपड़ों के नीचे एक छोटा सा बक्सा है। कई सालों से मां ने शायद उसे नहीं छुआ। लेकिन जब वह छोटी थी, उसे याद है कि मां उस बक्से को बाहर निकालती थी, ख़ास कर जब बापू दफ़तर गए होते। उस बक्सें में रखे कागज़ों को घंटों निहारती रहती थी। बक्से में कुछ ख़त थे, कुछ तस्वीरें, कुछ ग्रिटिंग कार्ड और उसके बाद वह कई दिन तक उदास और खोई-खोई रहती थी।

राजी को लगा जैसे हर किसी ने अपने मन के कोनों में शायद इस तरह के बक्से छुपाए हुए हैं- यादों के बक्से, तस्वीरों के बक्से, अधूरी, अपूर्ण इच्छाओं के बक्से, जिन्हें वह एकांत में बैठ कर खोलते, सहेजते रहते हैं और किसी के आ जाने पर बक्सा अपने आप बंद हो जाता है। शायद; शायद किसी दिन मैं भी…।
आज उसके मन में ना जाने क्यों वैसे भाव आ रहे थे, जो पहले कभी नहीं आए। यह कैसा अनुभव, जो उसके मन को ऐसा कोमल और भावुक बना रहा है?
‘मां कितनी उदास रहती है? वह सोचती जा रही थी और कितनी अकेली हो गई थी! होली तो उसने कभी इतने चाव से मनाई ही नहीं।’
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राजी ने पतीला गैस के चूल्हे से हटा कर एक तरफ रख दिया। गुसलखाने से आ रही आवाज़ से उसने अनुमान लगाया कि मां नहा चुकी है और नहा कर कमरे की ओर चली गई है- अब शायद कपड़े पहन रही होगी- और फिर उसने ट्रंक के खुलने की आवाज़ सुनी- वही ट्रंक जिस में कपड़ों के नीचे एक बक्सा पड़ा था। राजी दबे पांव कमरे में आ गई। तब तक मां ट्रंक बंद करने के बाद खिड़की के पास खड़ी बाल सुखाते हुए गुनगुना रही थी। मां के रेश्मी बाल अभी भी कितने चमकीले और काले थे! गीत के बोल जाने-पहचाने थे। मां कई बार अकेले बैठ कर यही गीत गुनगुनाने लगती थी। लेकिन मां ने कभी कोई गीत पूरा नहीं गाया। वह इस तरह खिड़की के पास खड़ी कितनी अकेली-अकेली लग रही थी। मां को इस तरह देख कर राजी का मन भर आया और उसका मन किया कि वह मां गले में बाहें डाल कर बातें करे। लेकिन मां और उसके मध्य कितना लंबा फ़ासला, कितनी लंबी दूरी थी?
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उसके बाद जब भी वह मां के सामने आती तो राजी को लगता कि मां की तिरछी नज़रें उसके अंदर धंसती जा रही हैं। फिर भी उसने मां के सवालों के कई जवाब सोच लिए थे। मां पूछेगी तो कह देगी कुछ नहीं हुआ, ऐसे ही मां को भ्रम हो गया है… अगर बात ज़्यादा बढ़ गई तो कह देगी ‘तो क्या हुआ? होली ही तो खेली है। इसमें इतनी कौन सी आफ़त आ गई। तुम्हारा ज़माना अलग था, हमारा ज़माना अलग है। तुम्हारे और मेरे मध्य एक फ़ासला है, आयु का फ़ासला, सालों का फ़ासला।’

वह दिन यूं ही डरते-डरते, मन ही मन सवाल-जवाब बुनते हुए निकल गया, मां ने कोई बात नहीं की।
अगली सुबह जब वह काॅलेज जाने के लिए तैयार हुई तो मां ने आवाज़ लगा कर उसे रोक लिया। राजी जा दिल एक दम से धक करके रह गया। वह डरते-डरते मां के पास जाकर खड़ी हो गई। मां ने एक बार उस की ओर देखा और फ़िर उसका हाथ पकड़ कर कलाई की ओर देखते हुए पूछा, ‘यह चूड़ियां कैसे टूट गईं?’
कुछ पल तक दोनों के मध्य असहनीय चुप्पी छाई रही। फिर राजी ने डरते-डरते कहा, ‘अपने आप, होली खेलते खेलते टूट गईं।’
एक क्षण और वह दोनों चुपचाप खड़ी रहीं। फिर मां ने अपने गले से सोने की ज़ंजीर उतार कर राजी के गले में पहना दी।
‘यह क्या मां?’
‘यह मैने तेरे लिए ही बनवाई थी। अब तुम बड़ी हो गई हो और समझदार भी। अब यह तुम्हारे गले में अच्छी लग रही है।’
पता नहीं यह करूणा थी या उदासीनता थी उसकी आवाज़ में, कि राजी की आखें भर आईं। कुछ बोलने के लिए होंठ खुले लेकिन शबद गले में ही आकर अटक गए और वह बस ‘थैंक्यू’ कह कर सीढ़ियों से नीचे उतर गई। और उसको लगा कि मां और उस के मध्य आयु की दूरी ख़त्म हो गई है, जैसे मां सहेली की तरह हो, अल्हड़ हो, उसके अपने जैसी…।
-मनमोहन बावा
प्रख्यात कथाकार एवं यात्रा-वृतांत लेखक
अनुवाद दीप जगदीप सिंह
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