लेकिन इस बार फ़िल्म के लेखन ने मुझे प्रभावित किया है और जो लोग फ़िल्म लेखन में रूचि रखते हैं, उन्हें यह समीक्षा अंत तक पढ़नी चाहिए, उन्हें इसमें बेहतर सक्रीन राइटिंग के काफ़ी मंत्र मिलेंगे। चाहे यह एक परफ़ेक्ट फ़िल्म नहीं है लेकिन कहानी के ग्राफ़ और किरदारों के ग्राफ़ के मामले में इस फ़िल्म में काफ़ी कुछ सीखने वाला है।
फ़िल्म में अक्षय कुमार बने है लक्ष्मीकांत चौहान उर्फ़ पैडमैन, उनकी पत्नी गायत्री के रोल में है राधिका आप्टे और प्रेमिका और प्रमोटर के रूप में हैं, सोनम कपूर। फ़िल्म का संकल्प है टविंकल खन्ना का और फ़िल्म लिखी है आ बाल्की और सवानंद किरकिरे ने, निर्देशन भी है आर बाल्की का।
कहानी
पैडमैन की कहानी औरतों की मासिक समस्या महावारी, मासिक धर्म, पीरियडस, चम्ज़ और जिसे मज़ाक में लड़के फाइव डे टेस्ट मैच कहते हैं, और कुछ लोगों को मैंने इसे नो एंट्री डे कहते भी सुना है। फ़िल्म की कहानी देखने में बहुत साधारण लगती है। एक छोटे से गांव में एक पति इस लिए परेशान हो जाता है कि महावारी के दौरान उसकी पत्नी को घर के बाहर सोना पड़ता है, रसोई में जाने और उसकी मनपसंद चीज़ें खाने पर पाबंदी लग जाता है और सबसे बुरी बात उसे अपनी शरीर के सबसे कोमल हिस्से पर गंदे कपड़े का प्रयोग करना पड़ता है। जब उसे पता चलता है कि यह गंदा कपड़ा औरतों के लिए जानलेवा हो सकता है तो वह सेनेट्री पैड लेकर आता है। लेकिन एक मामूली वैल्डिंग मैकेनिक होने की वजह से उसकी पत्नी कहती है कि इतने महंगे पैड्स खरीदेगा तो खाने के लाले पढ़ जाएंगे।
उसी से शुरू होती है उसकी सस्ता पैड बनाने की ज़िद, लेकिन इस कोशिश में उसकी पत्नी, बहनें, मां और पूरा गांव तक साथ नहीं देते बल्कि उसे चरित्रहीन कह के गांव से बाहर निकाल दिया जाता है, उसकी पत्नी उसे छोड़ कर चली जाती है। फिर कैसे वह पैड बनाने की ज़िद पूरी करता है, कैसे अपना खोया हुआ सम्मान हासिल करता है और कैसे अपनी पत्नी और परिवार को वापिस पाता है? पैडमैन उसी की कहानी है।
लेकिन इस कहानी में कई सारीं परतें हैंः प्रचार के हिसाब से यह सेनेट्री पैड का विज्ञापन लगती है, लेकिन असल में फ़िल्म एक पति की अपनी पत्नी के प्रति भावनाओं की कहानी है। अक्सर कहा जाता है कि शादी के बाद प्यार ख़त्म हो जाता है, लेकिन पैडमैन पति-पत्नी के प्यार की अहमियत को एक बार फिर याद करवाती है, दिखाती है कि पति अपना पूरा जीवन और उर्जा पत्नी की देखभाल, सुरक्षा और सेहत के लिए समर्पित कर देता है।
दूसरी परत है टैबूस की जिस पर कोई सवाल नहीं करता, ख़ास कर पीरियड्स जैसे मुद्दे पर इसे औरतों वाली बात कह कर मर्दों को इस से दूर रखा जाता है। पीरियड्स से जुड़ी शर्म, औरतों के लिए मौत से भी बड़ी बीमारी शर्म मानी जाती है, पीरियड्स की तकलीफ़ को समझने की बात तो दूर दाग़ लगने के डर से औरत चिंता में जीती है।
तीसरी परत है बदलाव की और बदलाव लाने के लिए समस्या की जड़ को समझने की। समाजिक समस्याओं के लिए हम अक्सर समस्याओं का तुरंत इलाज करने की कोशिश करते हैं, लेकिन समस्या की जड़ ढूंढ कर उसका परमानेंट हल करने के बारे में नहीं सोचते, इसी तरह लक्ष्मी भी फ़िल्म के पहले हिस्से में पैड बनाने की कोशिश करता रहता है, लेकिन दूसरे हिस्से में जा कर उसे समझ आता है कि समस्या पैड नहीं पैड बनाने वाली महंगी मशीन है, तब वह पैड बनाने वाली सस्ती मशीन बनाता है। लेकिन इस परत की मौजूदगी के बावजूद पैडमैन समस्या की एक जड़ तो पकड़ती है लेकिन मूल जड़ नहीं पकड़ती। वह माहवारी में हाईजीन का हल सस्ता पैड तो बताती है, लेकिन फ़िल्म महावारी के प्रती लोगों की मानसिकता को बदलने के मामले में काफी हर तक मूक रहती है। एक जगह पर लक्ष्मी का संवाद है कि रीति रिवाज़ बेवकूफों के लिए होते हैं और परी के पापा भी कहते हैं औरतों की समस्यों को मर्द अपने अंदर की औरत जगा कर ही समझ सकते हैं।
चौथी परत है, पैडमैन सहकारी संस्थाओं और ग्राम आधारित लघु एवं कुटीर उद्योगों के ज़रिए प्रमुख सामाजिक समस्याओं को हल करने का रास्ता बताती है। इस तरह जहां गांव के गरीब लोगों को रोज़गार मिलता है, वहीं सामाजिक समस्याओं का हल भी निकलता है। लेकिन कहीं ना कहीं यह बात समाजिक समस्याओं को बाज़ार से जोड़ देती है, मानसिक बदलाव से नहीं।
पांचवी परत, विवाह से बाहर संबंधों की है, जहां पर लक्ष्मी के साथ काम करते हुए परी को उससे प्यार हो जाता है, लेकिन लक्ष्मी सूपर हीरो बनने के बावजूद अपने गांव, अपनी पत्नी और परिवार के पास लौटने को प्राथमिकता है। हमने बहुत सी हिंदी फिल्मों में ऐयरपोर्ट पर प्रेमियों को अंत में मिलते देखा है, लेकिन पैडमैन शायद बाॅलीवुड की पहली फ़िल्म होगी, जिस में अंत से पहले एयरपोर्ट पर प्रेमी हमेशा के लिए अलग हो जाते हैं और वो भी प्यार से…
छठी परत भाषा की है, पैडमैन यह स्थापित करती है कि अगर आप में कुछ करने की इच्छा हो तो भाषा आपके लिए कभी बाधा नहीं बन सकती। जिन के जीवन पर पैडमैन आधारित है वह अरूणाचलम मुरूगनाथम दक्षिण भारतीय ग्रामीण हैं और उन्हें स्कूल की पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी, वहीं फ़िल्म का नायक लक्ष्मीकांत भी हिंदी भाषी है और उसे संयुक्त राष्ट्र में अपने अंदाज़ की इंगलिश, जिसे वह लिंगलिश कहता है, बोलते दिखाया गया है।
अंत के करीब आकर फ़िल्म भारत सरकार के मुद्रा ऋण और ग्रामीण सहकारी/सरकारी योजनाओं के विज्ञापन जैसी लगने लगती है, जो कहीं न हीं केंद्र सरकार के ग्रामीणों को बहलाने वाले चुनावी बजट को ही चमकाने का काम करने में सरकार का साथ देने की कोशिश ही कही जा सकती है।
निर्देशक आर बाल्की विज्ञापन गुरू रह चुके हैं, जो टाटा टी को जागो रे और आईडिया को वाॅक एंड टाॅक के समाजिक मुद्दों से जोड़ कर बेचने के सफल विज्ञापन चला चुके हैं। ज़ाहिर सी बात है पैडमैन के ज़रिए कहीं ना कहीं वह सोशल काॅज़ को विज्ञापन और बाज़ार से जोड़ कर एक लारजर दैन लाईफ विज्ञापन ही दिखा रहे हैं। जागरूकता फैलाने के लिए यह एक अच्छा माध्यम हो सकता है, लेकिन इसके बाजारू पहलू के प्रति सचेत रहना होगा।
बावजूद इसके फ़िल्म सरकार के डिजटिल इंडिया की हवा निकाल देती है और बताती है, कि चाहे छोटे से छोटे गांव को डिजीटल कर दिया जाए, लेकिन जब तक शिक्षा और कौशल निमार्ण नहीं होगा, रोज़गार की सुविधाएं नहीं होंगी, तब तक डिजटील इंडिया कुछ नहीं कर पाएगा। इसके साथ ही फ़िल्म नवीन खोजों को मोटा मुनाफ़ा कमाने का हथियार बनाने की बजाए आम लोगों की भलाई के लिए प्रयोग करने पर ज़ोर देती है।
अक्षय कुमार एक ख़्याल रखने वाले पति, एक हरफ़नमौला मकैनिक और एक भावुक पुरूष की भूमिका बखूबी निभा गए हैं। राधिका आप्टे ने ग्रामीण पत्नी के किरदार को अच्छी तरह से पर्दे पर उतारा है, वहीं शहरी महिला के रूप में सोनम कपूर का छोटा सा किरदार, कहानी में ताज़गी लाता है। सहायक कलाकार ओवर एक्टिंग करते हुए नज़र आते हैं।
संपादन और भी बेहतर हो सकता था। सिनेमेटोग्राफी और बैकग्राउंड म्यूज़िक फ़िल्म की कहानी को उपयुक्त संवेदना और माहौल प्रदान करते हैं।
पैडमेन को जाते हैं ढाई स्टार
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