करीब दो महीने तक पशोपेश की स्थिति को समाप्त करते हुए 11 मार्च 2017 को पंजाब के चुनाव परिणाम आ ही गए, जिस में 77 सीटों की मजबूत जीत के साथ कैप्टन अमरिंदर सिंह की अगुवाई में कांग्रेस ने पंजाब की राजनीति में वापसी कर ली है।
सोशल मीडिया पर जीत का ऐलान कर चुके आम आमदी पार्टी समर्थकों को जहां 22 सीटों से संतोष करना पड़ा, वहीं शिरोमणि अकाली दल-भाजपा गठबंधन को 18 सीटें ही मिल सकीं। इन चुनावी नतीजों से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि अकाली दल को सिर्फ ब्रेक दिलाई गई है, उसके मूल आधार को कोई नुकसान नहीं पहुंचा है (अकाली दल का वोट प्रतिशत कभी भी 25 फीसदी से नीचे नहीं गया, जो इस बार भी कायम है)। शायद शिअद को चुनाव प्रचार के दौरान जमीनी स्तर पर सत्ता खिसकती हुई नजर आ गई थी और उसने बहुत सोची-समझी योजना के तहत अंदरखाते (कई जगह खुल कर भी) कांग्रेस के साथ मिल कर चुनावी बिसात बिछाई, जो पूरी तरह कामयाब रही। कैप्टतन अमरिंदर सिंह का लंबी से चुनाव लड़ना और रवनीत बिट्टू को जलालाबाद से टिकट देना इसी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। परंतु 77 सीटों पर इस जीत के लिए कांग्रेस की अपनी भूमिका को भी कम नहीं आंका जा सकता।
एग्ज़िट पोल में जो त्रिशंकु विधान सभा की संभावना बताई जा रही थी, वह चुनाव लड़ रही तीनों प्रमुख पार्टियों को अलग-अलग रख कर देखे जाने की वजह से था, लेकिन अंतिम चुनाव परिणाम अंदरखाते शिअद-कांग्रेस के गठजोड़ को प्रमाणित करते हुए लगते हैं। इसका अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि कांग्रेस अपने चरम वोट प्रतिशत (45) और पिछले विधानसभा चुनाव 2012 के वोट प्रतिशत (40) की तुलना में इस बार भी नीचे (38) ही है। यानि इस जीत को कांग्रेस के अपने तौर पर पंजाब में मज़बूत होने का आधार नहीं माना जा सकता। हां यह जीत उसे अपना आधार मज़बूत करने का मौका ज़रूर देगी। लेकिन क्या वह यहां से देश में वापसी का रास्ता खोल सकेगी, यह अभी कहना मुश्किल होगा।
आम आदमी पार्टी ने साफ तौर सबसे बड़ा नुकसान शिअद को पहुंचाया है, जिस में बड़ा हिस्सा जट्ट किसान वोटों का है। शायद धार्मिक मामले की भावुकता में अकाली विरोधी गुस्से का इज़हार आप को वोट देकर किया गया है (इस लिए कांग्रेस की बजाए आप को चुना गया)।
इसमें जो बात समझने वाली लग रही है वह यह है कि चुनाव में साफ़ तौर पर पार्टी या नेताओं से ज़्यादा रणनीति की सफलता/असफलता का मुल्यांकण करना होगा और फिलहाल पंजाब में पारंपरिक पार्टियों की संयुक्त रणनीति सफ़ल रही।
यह बात उत्तर प्रदेश में भाजपा और अमेरीका में ट्रंप की जीत की पृष्ठभूमि में देखी जा सकती है कि पार्टी के मुख्य चेहरों पर गंभीर सवाल होने के बावजूद इस समय इन दोनों पार्टियों के पास ऐसी रणनीति है जो सफ़ल हो रही है यानि वोटरों के ज़ेहन में यह जो भरना चाह रहे थे, उसमें सफल हुए हैं। अमेरीका और भारत सहित दुनिया भर में वामपंथियों की फासीवाद, असहनशीलता और बोलने की आज़ादी वाली विरोध की रणनीति का रत्ती भर भी असर नज़र नहीं आ रहा है। इसके साथ ही आम आदमी पार्टी की पापुलर संस्कृति वाली कुप्रचार की रणनीति की असफ़लता पर भी मोहर लगी है।
विस्तृत रूप में यह दक्षिणपंथ, जाति, धर्म और राष्ट्रवाद आधारित राजनीति के उभार और ज़मीनी स्तर के बहुसंख्यावाद की मज़बूती का दौर साबित हो रहा है, अल्पसंख्यकों को इस बारे में ज़्यादा चिंतित होने की आवश्यकता तो है जी, अपनी रणनीति को नए सिरे से सोचने के लिए भी गंभीर होना होगा।
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