नाटक की भला कोई जाति होती है क्या? लेकिन नाटक जाति के सवाल पर बहुत गंभीर विमर्श कर सकता है। ख़ास कर उस शहर में जहां पर नाटक भी अछूत माना जाता है।
असल में नाटक बड़ा दमदार माध्यम है। अगर इसे जी-जान से किया जाए तो दर्शकों को अंदर तक हिला देने की कुव्वत रखता है। पंजाब में नाटकों की विभिन्न किस्म की परंपराएं रही हैं। पूरी सीरिज़ में देखता हूं तो लुधियाना शहर नाटक के बड़े केंद्र के रूप में उभरता हुआ नज़र आता है। दशक भर पहले अमृतसर में निजी प्रयास से सम्पूर्ण आॅटोमेटेड रंगमंच का आगमन हुआ। वहां अब वीकऐंड रंगमंच का चलन आम हो गया है। लोग टिकट ख़रीद कर नाटक देखने आते हैं। दिल्ली, मुंबई जैसी फीलिंग आती है।
दूसरी तरफ़ लुधियाना जैसे इंडस्ट्रियल शहर का नाटक अभी भी दानियों के रहमो-कर्म और रंगमंच संस्थानों के निजी प्रयासों तक सीमित है। पंजाबी साहित्य अकाडमी का ओपन ऐयर थिएटर हौसला बढ़ाता है। लेकिन पपड़ी बन कर धीरे-धीरे गिर रही इसकी छत डराती है। अकाडमी बिना किसी फ़ीस के उत्साही रंगकर्मियों को इसे उपलब्ध करवा देती है। लाइट, साउंड, सेट और ड्रसेस पर ही काफ़ी ख़र्च हो जाता है। लेकिन इस सब के बीच रंगमंच रंगनगरी ऐसा संस्थान है, जिसने पंजाब की व्यवसायक राजधानी में रंगमंच बचा ही नहीं रखा है, बल्कि सामकालीन मसलों पर लगातार नाटक कर भी रहा है।
रंगमंच रंगनगरी द्वारा आज पेश किया गया हिंदी नाटक तेरी जाति क्या? जाति के विमर्श को ज़ोरदार तरीके से उठाता है। रामेश्वर प्रेम की रचना अजात घर को निर्देशक मनदीप सिंह ने ताज़ा भारत बंद और आसिफ़ा के घटनाक्रम के साथ जोड़ कर समकालीन माहौल में एडाप्ट किया है। करीब सत्तर मिनट के नाटक मे दो पात्र मंच पर दंगे की पृष्ठभूमि मे नज़र आते हैं, जो दंगों की भेंट चढ़ चुके एक पंचायत घर में छुप गए हैं। बाहर दो समुदायों के बीच दंगा चल रहा है। दोनो एक दूसरे की जात नहीं जानते। इलाके के हिसाब से जाति का अंदाज़ा लगाने की कोशिश करते हैं। एक को अपने कानून के ज्ञान पर घमंड है तो दूसरा अपने बल पर फूला नहीं समाता।
इस बीच बाहर से कौलाहल की आवाज़ें आती हैं। कभी बस्ती जलाई जा रही है। कभी औरत की अस्मत लूटी जा रही है। कहीं बच्चे रो रहे हैं। लेकिन दोनों घर पर दुबके हुए, हाथ में लाठी सरिया लिए इस चिंता में डूबे हैं कि दूसरा उसे मार ना दे या बाहर वाले दंगई उन्हें ढूंड कर मार ना दें। दोनों के दिमाग में सवाल चल रहा है कि अगर यह दूसरी जाति का हुआ तो उसे मार दूं। अगर मार दिया और पता चला कि अपनी जाति का है तो? इसी कशमकश में बाहर दंगा रुकने का इंतज़ार करते वह, एक दूसरे पर धौंस जमाने की कोशिश करते हैं। असल में यह धाैंस नहीं ख़ुद के मारे जाने की असुरक्षा है। बीच-बीच में एक दूसरे के जीवन के दुखों का वर्णन सुन तरल हो जाते हैं, फिर अचानक एक दूसरे पर शक करने लगते हैं। एक-दूसरे पर हमला करते हैं, एक दूसरे का वार बचाते हैं और फिर ठहाके लगाने लगते हैं, चिढ़ाने लगते हैं।
फिर बाहर आग की लपटें उठती हैं, चीखो-पुकार सुनाई देती है। अचानक तनातनी होती है और यह कह कर एक बाहर दौड़ जाता है कि वह अपनी जात वालों को लेकर आएगा, फिर दूसरे की किस्मत का फ़ैसला होगा। लेकिन जब वह लौटता है तो अपनी जाति वालों के हाथों जख़्मी हो चुका है, दूसरे की गोद में आख़री सांसे गिनता हुआ कहता है, उसे दूसरी जाति वालों ने डराया, अपनी जाति वालों ने मारा है। सबसे चैका देने वाला दृश्य तब है जब अचानक राष्ट्रीय गीत बजता है, सारी आॅडियेंस खड़ी हो जाती है। राष्ट्रीय गीत समाप्त होता है और पात्र हुंकार भरता है, ‘बस डंडे की तरह सीधे खड़े रहना, कभी लड़ने की मुद्रा में मत आना। डंडा बने रहना है तो खड़े रहो सीधे, कुछ करना है तो साध लो ख़ुद को।’ कहते हुए वह आॅडियेंस में ही मिल जाता है।
मनदीप सिंह के सधे हुए निर्देशन में मुकेश कुनयाल और दविंदर सिंह ग्रेवाल ने दंगे में घिरे, सहमे हुए किरदारों की मानसिकता को गहरे से मंच पर उतारा है। उन्हें देखते हुए लगता है जैसे हम भी उनके साथ उस घर में फंसे बैठे हों, पीछे कहीं टूटे हुए बेड के नीचे दुबके हुए। तभी हमला होगा और हम मारे जाएंगे। दोनों की टाइमिंग और एक्सप्रैशन नाटक की टेंशन को बनाए रखते हैं। कुछ यादगार डाॅयलाॅग हैं, ‘कत्ल पर मुकदमा होता है, दंगे पर कोई मुकदमा नहीं होता’ और एक पात्र जब कहता है पंचायत में गाली नहीं देते तो दूसरा समझाता है ‘पंचायत होती ही गालियों की है।’ इस तरह यह नाटक पंचायती ढांचे से लेकर कानून व्यवस्था की स्थिति पर सवाल करते हुए, मन में कांच के टुकड़े की तरह धंस चुके जाति के प्रशन को उठाता है।
सवाल यह कि मिट्टी, पानी, हवा, रौशनी बता तेरी जाति क्या है?
जवाब मिले ताे बतार्इगा ज़रूर!
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