दीप जगदीप सिंह
रेटिंग 4/5
हिंदी सिनेमा के जंगल में बड़े-बड़े सूपर स्टार पहलवान आते हैं अखाड़े में दांव लगाते हैं कुछ कई सौ करोड़ की ट्राफी जीत कर भी चारो खाने चित्त हो जाते हैं और कई बाॅक्स आॅफिस के खोपचे में सांस लेने से पहले ही दम तोड़ देते लेकिन उनका दांव ऐसा होता जो दर्शकों के दिल पर धोबी पछाड़ दे देता है।
उनमें से कुछ एक पहलवान बस अपनी पीठ थपथपाते रहते हैं, लेकिन जो दर्शकों का दिल जीतता है वो असली पहलवान कहानी होती है। दंगल में भी जो असली पहलवान है, वह कहानी है, इसी लिए दंगल धाकड़ है और बाॅक्स आॅफिस पर दंगल का मंगल लंबा चलेगा।
यूं तो दंगल की कहानी प्रिडिक्टेबल है और उसी तैय पटड़ी पर दौड़ती है जिसके अंत में नायक हर मुश्किल को पार करते हुए जीत जाता है। दंगल को देखते हुए यह भ्रम पैदा हो सकता है कि असल में नायक कौन है। अपना सपना पूरा करने के लिए समाज की हर परंपरा तोड़ने और दुनिया भर से दंगल लेने के लिए तैयार महावीर सिंह फोगट (आमीर ख़ान)? या अपने पप्पा का सपना पूरे करने के लिए अपने बचपन को दांव पर लगाने वाली (जो बाद में उनका भी सपना बन जाता है) गीता (ज़ायरा वसीम व फ़ातिमा सना ख़ान) और बबीता (सुहानी भटनागर व सानया मल्होत्रा) ? या अपने पति की सनक के सामने ना सिर्फ ख़ुद को बल्कि अपने ममत्व को भी समर्पित कर देने वाली शोभा कौर (साक्षी तंवर)? या अपने ताऊ की सनक के चक्कर में अपनी हरियाणावीं मर्दानगी छोड़ कर अपनी ही बहनों से पिटता रहता वाला ओंकार (अपारशक्ति ख़ुराना व ऋत्विक साहोर)? या फिर नैशनल स्पोर्ट्स अथाॅरटी का वो हैड जो खेल संस्थाओं के निक्कमेपणे वाले माहौल में अपने ही विभाग के कोच की जगह अंततः एक देसी पहलवान में भरोसा दिखाता है? या फिर चिकन शाॅप वाला जो महंगाई के दौर में भी सौ रुपए वाला मुर्गा पच्चीस रुपए में देने के लिए राज़ी हो जाता है, जिसके बिना गीता-बबिता का पहलवान बनना असंभव था? असल में दंगल के अख़ाड़े में सब ही नायक नज़र आते हैं, ठीक वैसे ही जैसे एक विलेन में कहीं-कहीं सब ही विलेन हैं। इन सब के बीच अगर सचमुच कोई नायक है तो वह निखिल मेहरोत्रा, श्रेयस जैन, पियूष गुप्ता और नितेश तिवाड़ी की कहानी और पटकथा है जो इस घोर प्रिडिक्टेबल कथा को इस तरह से परत दर परत खोलतें हैं कि आख़री फ्रेम तक आप इस ऊहापोह में रहते हैं कि गीता जीतेगी तो सही लेकिन जीतेगी कैसे, जो कि उसकी ना होकर अंततः महावीर की जीत होगी। सतह पर एक पहलू यह है कि कहानी नारी की संबलता और बराबरी के हक की पक्षधर है, लेकिन हल्की सी गहराई में जाते ही, नज़र आता है कि असल में यह परिवार के मालिक महावीर फोगट के अधूरे सपने के पूरे होने की कहानी है, जिसे पूरा करने में उसकी बेटियां केवल माध्यम मात्र बनती हैं। इस तरह दंगल का नारीवाद उसके संकल्प का केंद्र नहीं बल्कि बाॅय-प्राॅडक्ट या वाया माध्यम है। महावीर का लड़कियों को समाज के विपरीत जाकर लड़कों की तरह पहलवान बनाने का प्रेरणा स्रोत लड़कियों की बराबरी के हक की सोच से नहीं बल्कि उसका सपना सच होने की संभावना में से फूटता है। यह स्रोत पैदा भी उस एक्टिविटी से होता है जिसका एकाधिकार अक्सर मर्दों के पास माना जाता है, मार-पिटाई। ख़ैर जो भी हो यह घटना महावीर के अंदर लड़के पैदा ना हो सकने की निराशा को दूर धकेल लड़कियों को ही गोल्ड मैडल लाने के लिए तैयार करने की सोच को ट्रिगर तो करती ही है। यह अपने आप में एक महत्वपूर्ण मानसिक बदलाव है।
कहानी की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि पहले दस मिनट में ही यह अह्म टविस्ट हो जाता है और बीस मिनट होते-होते कहानी अपले लक्ष्य की दिशा में सरपट दौड़ चुकी होती है। बावजूद इसके कहानी लगातार मनोरंजक और रोचक भी बनी रहती है और अपने लक्ष्य से भटकती भी नहीं। यह बीस मिनट इस बात की मिसाल हैं कि शुरूआत में दर्शकों को जोड़ने के लिए उसमें मनोरंजन जब्रदस्ती ऊपर से ठूंसने की आवश्यकता नहीं होती, उसे कहानी के अंदर से ही पैदा किया जा सकता है। यहां से लेकर अंत तक कहानी का ग्राफ़ एक तैय गति के साथ फैलता चला जाता है और अपनी ग्रिप बनाए रखता है। यूं तो निर्देशक ने कुछ जगहों नाटकीयता और फिल्मांकन के सुविधा को देखते हुए अनावश्यक सिनेमेटिक स्वतंत्रा भी ली है, लेकिन कहानी में बंधा दर्शक संस्पैंशन आॅफ डिसबिलीफ़ की मंत्र को सार्थक करता हुआ कुर्सी के किनारे पर जमा रहता है। क्लाईमेक्स में आकर जिस तरह निर्देशक नाटकीयता को दोहरी-तिहरी जटिलता में पिरोता है, वह एक दमदार क्लाईमैक्स की बानगी बन सकता है और यही बात दंगल प्रिडिक्टेबली अनप्रिडिक्टेबल बना देती। यह तो प्रिडिक्टेबल है कि गीता फाइनल जीतेगी, लेकिन फाइनल शुरू होने से एकदम पहले जैसे ही महावीर एक अजीब मुश्किल में फंस जाता है और ग्राउंड में नहीं पहुंच पाता, यह टविस्ट इस प्रिडिक्टबिलिटी में एक पेंच यह फंसा देता है कि बिना महावीर की हाज़री के गीता जीतेगी कैसे? एक और पेंच यह है कि क्या महावीर उस मुश्किल से निकल पाएगा कि नहीं? अगर निकलेगा तो क्या वह मैच ख़त्म होने से पहले निकल सकेगा या नहीं? इस तरह एक ही समय में अनेकों सवाल दर्शक की संवेदना को तब तक जकड़े रहते हैं जब तक राष्ट्रगान की धुन नहीं बजती। यही इस कथा-पटकथा की सार्थकता है। कहानी जहां सपने और हकीकत की ख़ाई पाटने के लिए आवश्यक संबल का पुल बनती है वहीं वह रिश्तों, मिट्टी और जड़ों की ओर लौटने और जुड़े रहने नींव पर खड़ी है।
तिवारी की बतौर निर्देशक अब तक आई तीन फिल्मों चिल्लर पार्टी, भूतनाथ रिटनर्ज़ और दंगल व बतौर लेखक निल बटे सन्नाटा में एक बात काॅमन है-बच्चों के केंद्रीय किरदार। इन तीनों फिल्मों के बच्चों के किरदार के प्रस्तुतिकरण को देख कर महसूस होता है कि तिवारी बच्चों की मनोस्थिति और व्यवहार को काफी बारीकी से पकड़ते हैं और बख़ूबी उन्हें पर्दे पर उतारते हैं। उनके बच्चों के किरदारों में उनका बचपन और संवेदना साफ झलकते है और बच्चे दर्शकों को साथ जोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
आमीर ख़ान ने हमेशा की तरह ख़ुद को किरदार में ढालने में कोई कसर नहीं छोड़ी है, जितनी डिटेलिंग लेखक और निर्देशक ने किरदारों की की है, आमीर सहित सभी कलाकार उस में पूरी तरह से उतरे हुए हैं। चारों नवोदित लड़कियों ने गीता और बबिता के बचपन और युवावस्था के किरदार में जान भी डाली है और पहलवानी की तकनीक को भी आत्मसात किया है। बाल ओंकार के रूप में ऋत्विक साहोर और युवा ओंकार के रूप में अपारशक्ति ख़ुराना गुदगुदाते भी हैं और उनकी उपस्थिति फिल्म में चाॅकलेटी युवा की कमी को ख़लने नहीं देती। बहनों के साथ जिस तरह की कैमिस्ट्री उन्होंने बनाई है वह फिल्म में एक युवा टच बनाए रखती है।
फिल्म के एक और ज़ब्रदस्त और छिपे हुए नायक हैं गीतकार अमिताभ भट्टाचार्य। उनके लिखे एक-एक शब्द में कहानी की आत्मा झलकती है और हरियाणवीं उपबोली का चटकारा उसमें भरपूर है। हर गीत कथानक में ऐसे फिट होता जैसे इसी ज़िग्साअ पज़ल का हिस्सा हों। कथानक में एंथम की तरह चलते शीषर्क गीत में दलेर मेहंदी की दमदार आवाज़ ने वीर रस का पुट दिया है। धाकड़ है गीत में रफ्तार का रैप उनके चिर-परिचित अंदाज़ से बिल्कुल हट कर फिल्म की आत्मा को समाए हुए है। सभी गायकों ने बोलों में रूह फूंकी है तो प्रीत्म का संगीत उन्हें कंपलिमेंट करता है। प्रीत्म का ही बैकग्राउंड स्कोर नदी के अंडरकरंट की तरह पटकथा के पीछे बहता है और हर उतार-चढ़ाव के साथ सहजता से ताल मिलाए रखता है। फिल्म की ज़ब्रदस्त ग्रिप का श्रेय बल्लू सलूजा के संपादन को भी जाता है। सेतु के कैमरा से गुज़रकर भी दंगल के अख़ाड़े और इनडोर रेसलिंग स्टेडियम असलियत के करीब ही रहते हैं।
पहलवानी पर केंद्रित होने की वजह से सलमान की सुल्तान और आमीर की दंगल की तुलना होनी लाज़िमी है। अब जब दोनों के ही ट्वीट ने इस तुलना की आग में घी का काम कर दिया है, तो इंटरवल में दर्शकों को यह तुलना करते हुए सुनना अटपटा नहीं लगा। दोनों फिल्मों में मूल फ़र्क यह है कि सुल्तान की कहानी सलमान ख़ान को केंद्र में रख बुनी गई महसूस होती है, जिसका केंद्र शुरू से अंत तक सुल्तान के रूप में सलमान ही बने रहते हैं। इंटरवल के बाद तो वह पूरी पटकथा ही सुल्तान की हो जाती है। जबकि दंगल की आत्मा भले ही महावीर फोगट का सपना और उसकी मश्कत हो लेकिन पटकथा में मुख्य किरदार के रूप में गीता और बबिता अग्रभूमि में रहते हैं, फिल्म को आखि़री शिख़र तक भी गीता ही लेकर जाती है, जिसके ज़रिए महावीर के सपने की पूर्ति होती है और वह अंत में प्रसन्नचित होते हैं। वैसे भी सुल्तान एक कोरी कल्पना पर आधारित कहानी थी जबकि दंगल महावीर के रूप में दर्ज़ एक इतिहास का सिनेमेटिक पुर्नकथन है।
फिल्म में कहीं-कहीं सिनेमाई अतिरेकता के साथ-साथ कुछ एक तकनीकी झटके भी मौजूद हैं, जैसे कि क्लाईमैक्स सीन में गीता द्वारा विरोधी खिलाड़ी को उठाने से लेकर नीचे पटकने तक उसकी पुज़ीशन बदली हुई है। फिल्म का हर किरदार पिक्चर परफ़ैक्ट होना तो जैसे हिंदी सिनेमा को वरदान के रूप में मिला हुआ श्राप है। दंगल भी इस श्राप से अभिश्प्त है। जिस तरह भाग मिल्ख़ा भाग मिल्खा सिंह की 1956 की मेलबोर्न ओलपिंक और 1960 की रोम की समर ओलंपिक में बड़ी हार से ज़्यादा पाकिस्तान के साथ हुई मित्रता दौड़ की जीत को एक बड़ी जीत बना कर पेश करती है, ठीक वैसे ही दंगल गीता की 2010 की काॅमनवेल्थ की सुनहरी जीत के साथ, 2012 की ओलंपिक्स की हार को फिल्मी पर्दे के हाशिए पर धकेल देती है। शायद हमारा दर्शक कम से कम सिनेमा के पर्दे पर हारा हुआ अंत अभी नहीं देखना चाहता। ख़ैर, दंगल की इस जीत को 4 स्टार तो दिए ही जा सकते हैं।
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