दीप जगदीप सिंह | जयपुर लिट्रेचर फैस्टीवल ख़त्म हुए एक सप्ताह से ज़्यादा हो चुका है। पांच दिन की ‘भीड़ भरी हवाई उड़ान’ के बाद ‘जैटलैग’ से निकलने के लिए शायद एक सप्ताह काफी होता हो। इन सात-आठ दिनों में लिखूं या ना लिखूं वाली हालत लगातार बनी रही, लेकिन आखिर कब तक चुप रहूं, तमाशबीन बन कर तमाशा देखता रहूं, यही सोच कर अब तुम्हारे हवाले जानो तन साथियो…
ख़ैर आप सोच रहें होंगे कि यह तमाशा क्या है तो बता दूं कि 2014 में ही मैंने कहीं कह दिया था कि अब इसका नामकरन जयपुर फिल्म, क्रिकेट और लिट्ररेचर फैस्टीवल कर देना चाहिए, लेकिन अब बात उससे भी आगे बढ़ चली है क्योंकि भीड़ के साथ-साथ मंच पर होने वाला प्रस्तुतिकरण भी तमाशे का रूप ले चुका है। इस बार मैं इसे ग्रेट इंडियन लिटरेरी ग्लैमर्स तमाशा कहना चाहता था
आप चाहें तो बुरा मान सकते हैं लेकिन
‘मोदी-मोदी’ के मंत्रोउचारण के साथ अनुपम खेर के चेहरे पर खिली लालिमा को याद करते हुए मैं अपने आप को व्यक्त करने की आज़ादी का प्रमाण पत्र लेने किसी के भी पास नहीं जाने वाला, ना ही मैं इस बात का हल्फनामा देने की ज़रूरत समझता हूं कि मैं यह व्यक्तय पूरी जिम्मदारी से दे रहा हूं, बावजूद इसके के मेरे लिखे प्रत्येक अक्षर, शब्द और वाक्य के लिए मैं स्वयं ज़िम्मेदार हूं।
जब 2009 में अपने एक दोस्त के साथ मैं पहली बार इस उत्सव को बतौर दर्शक देखने गया था तो इसका खुला माहौल, मंच और दर्शकों का उत्साही संवाद मुझे आकर्षक लगा था। उससे भी ज़्यादा आकर्षक था आम पाठक को लेखकों संग जनवरी की गुनगुनी धूप में किसे कोने बैठ कर बतियाते देखना, किसी बात पर खिलखिला के सामूहिक हंसी हंसना और जाते-जाते भी दस बार हाथ मिलाते हुए फिर रूक जाना, सवाल सुनना, जवाब देना और फिर हाथ मिलाना। चेतन भगत, प्रसून जोशी और मार्क टल्ली घंटों दरबार हाल के सामने लॉन में लगे गोल मेज़ के गिर्द धूप सेकते नज़र आते, खुद उन्हें भी पता ना चलता कब एक भरा पूरा सैशन उस मेज़ के गिर्द शुरू हो जाता।
मुझे आज भी याद है 2014 के बहुत से सैशनों में
कबीर बेदी ना सिर्फ दशर्कों के मध्य बैठे रहे बल्कि कई बार सवाल पूछने के लिए उन्होंने हाथ खड़ा किया और अपने तक माईक पहुंचने का इंतज़ार किया। बुक साईन करवाने के लिए तब भी कतार लगती थी, अब भी लगती है, लेकिन अब लेखक बॉक्सरों के पिंजरे में कैद हो गया है।
काजोल, करन जौहर, गुलज़ार, जावेद अख़्तर, शत्रुघन सिन्हां और अनुपम ख़ेर का तो समझ आता है, लेकिन जब रस्किन बांड, माग्रेट एटवुड और टीएम कृष्णा सरीखे लोगों के लेखक/कलाकार भी चाहे-अनचाहे इस पिंजरे में कैद हो जाते हैं तो लगता है कि पाठक और लेखक के मध्य कोरपोरेट की दीवार लम्बी हो गई है। ख़ास कर तब जब लेखक को मिलने वालों से ज़्यादा संख्या लेखक को घेरने वाले बाॅक्सरों की हो। भला कोई बताए इन्हें कि जब यह लेखक अपने शहर, अपनी सोसायटी, अपने मुहल्ले, अपनी गली से गुज़रते हैं तो इनके साथ कितने बॉक्सर चलते हैं।

फर्क पड़ता है
शुरूआत में जब इस उत्सव में काॅरपोरेट का प्रयोजन देखा तो सोचा था कि जिस दौर में साहित्य को कोई चिमटे से उठाने को भी तैयार नहीं, जब यह माना जाने लगा है कि साहित्य अब सेलेबल नहीं रहा है, उस दौर में अगर साहित्य पर कारपोरेट पैसा लगा रहा है तो इस पर नाक भौं सिकोड़ने वाली बात क्या है। क्या हुआ अगर साहित्य के बहाने वह अपने उत्पादों के लिए कुछ और उपभोक्ता बना लेता है या अपनी ब्रांड वैल्यू बढ़ा लेता है। अंतत: तो पाठको और साहित्य का ही भला हो रहा है। लेकिन तब शायद यह समझ नहीं थी कि ब्रांडिंग का अर्थ भीड़ होता है। 10 करोड़ वाले बजट के प्रयोजन को जस्टफाई करने के लिए लाखों की भीड़ तो जुटानी होगी, फिर वह भीड़ साहित्य के पाठक की हो या किसी फिल्मी या क्रिकेट के सितारे के फैन्स की, उससे आयोजकों को क्या फर्क पड़ता है।
देखते ही देखते भीड़ का अनुपात फिल्मी सितारों और क्रिकेट खिलाड़ियों के अनुपात में बढ़ता जा रहा है और लेखक व पाठक का सीधा संवाद सिमट रहा है। कुछ साल पहले जब राहुल द्राविड़ आए थे तो हालात यह हो गए थे कि करीब घंटा भर उत्सव स्थल की एंट्री बंद करनी पड़ी थी, लेकिन उनके जाते ही भीड़ का जवारभाटा भी बैठ गया था।
इस बार भी कुछ-कुछ वैसा ही हाल करन जौहर और काजोल, गुलज़ार और जावेद अख़्तर, शत्रुघन सिन्हां और अनुपम ख़ेर के सैशनों में रहा, चाहे नौबत एंट्री बंद करने की नहीं आई़। जनसत्ता के अपने लेख में अजीत राय सवाल पूछते हैं किसी गंभीर विषय पर संवाद कितने लोगों के बीच संभव है।

पाठक ठगा गया!
साहित्य का गंभीर पाठक उन सैशनों में भी ठगा गया जहां वह चर्चित चेहरों से साहित्य का रसपान और गंभीर संवाद की उम्मीद लेकर गया था। जब साबुन बनाने वाली कंपनी डव द्वारा प्रयोजित सुंदरता की परिभाषा गढ़ने में फिल्मों और साहित्य की भूमिका पर चर्चा के दौरान जावेद ने ताली बटोरने वाले जुमलों को हवा में उड़ाते हुए पूरे पैनल को ही धता बताने वाली मुद्रा में बार-बार उनकी ओर देखा, तो पाठक का भ्रम टूट गया।
उससे भी उग्र था बार-बार दिखाया जा रहा डव का वह विज्ञापन जिस में काली और गोरी बालिकाएं अपने घुंघराले बालों की वजह से अवसादग्रस्त हैं। जिसके अंत में डव उन्हें अपने बालों से और उनके ज़रिए ज़िंदगी से प्यार करना सिखाता है यानि अपनी पहचान को सविकार करने और उससे प्यार करने की सीख लेने के लिए अब उन मासूम बच्चियों को महंगा डव साबुन खरीदना होगा। आहत हुए एक दर्शक ने तो फेसबुक पर यहां तक लिख दिया कि वह जावेद अख़्तर के किसी भी सैशन से दूर रहना ही पसंद करेंगे। जावेद साहब अपने ठगे से पाठकों को एक कोने में उंघता छोड़ अगले सैशनों में जुटने वाली भीड़ का तस्सवुर करते लौट गए और अगले दिन विजय मुस्कान के साथ एक बार फिर मंच पर दोगुनी भीड़ के सामने प्रकट हुए।

गुलज़ार का कॉपीराइट
कुछ-कुछ ऐसा ही हाल गुलज़ार के दीवानों का भी हुआ। उनके सैशन के मेज़बान, पूर्व नौकरशाह व जदयू के कोटे से मौजूदा राज्य सभा सांसद पवन के वर्मा ने शुरू से ही गुलज़ार साहब से ज़्यादा पूरा सैशन खु़द पर ही केंद्रित करने की कोशिश की बावजूद इसके कि वह बात गुलज़ार और उनकी कविताओं की करते रहे, लेकिन ऐसे जैसे कि गुलज़ार का पूरा कॉपीराइट उन्हीं के पास है। यहां तक कि शुरूआत में रस्मी अभिवादन करने का मौका भी गुलज़ार साहब को देने का उनका कोई मूड नहीं था, अगर गुलज़ार साहब बेहद शाईस्तगी से अपने लिए कुछ अल्फाज़ चुरा ना लेते। फिर भी पूरे सैशन के दौरान लगा जैसे गुलज़ार ने अपनी लगाम उन्हें थमा रखी हो।
जहां कहीं लगता कि गुलज़ार पहले से लिखे सक्रीनप्ले से कहीं इधर उधर हो रहें है पवन खींच कर उन्हें कंटीन्यूटी में ले आते। दोनों दर्शकों को विस्मित करने के लिए नाटकीय अंदाज़ में कोई ऐसी बात करते कि लगता सब कुछ अचानक हो रहा हो, लेकिन उजले दिन की तरह साफ ज़ाहिर होता कि सब पहले से तय है। पवन पन्ना नम्बर बताते, गुलज़ार किताब खोलते कविता पढ़ते।
हद तो तब हो गई जब एक मौके पर आकर कुछ पल के लिए गुलज़ार साहब को अपनी किताब पवन साहब को देनी पड़ी तो उमसें लगी चिप्पियां दूर तक झांकने लगी। उस पर गुलज़ार साहब को बोलना पड़ा के मेरी रखी निशानियां हिला मत देना। यह सक्रीनप्ले के उजागर होने का आखरी मरहला था। बावजूद इसके गुलज़ार साहब की आवाज़, अल्फाज़ और अंदाज़-ए-बयां हमेशा की तरह दिल में उतरने वाला रहा। ऐसा सैशन तो वह अकेले ही संभाल सकते थे। ना जाने आयोजकों और खुद उनकी क्या मजबूरी रही होगी।
साहित्य का संघर्ष
यूं साहित्य का पाठक दिन-दिहाड़े लुटता पिटता निराश होता भीड़ में खोया सा खुद को अकेले पाता तो किसी ऐसे पंडाल में जा बैठता जहां भीड़ कम हो चाहे लेकिन विचार गहन हो। वैसे सजग पाठक यूं ही अपना हक जाने नहीं देता। अशोक वाजपयी, सीपी देवल और अजय प्रकाश के ‘साहित्य का संघर्ष’ शीषर्क वाले सैशन में जब वाजपेयी साहब ने शुरूआत में ही अपने विचार को जरनलाईज़ करने की कोशिश की तो एक महिला चीख-चीख कर कहने लगी, आप बस करिए, उदय प्रकाश को बोलने दीजिए।
सैशन के आगे बढ़ते-बढ़ते जब बाएं कोने पर छूट गए उदय प्रकाश सब कुछ टुकर-टुकर देखते रहे तो अचानक वाजपेयी साहब को लगा कि काफी देर से वह भी कुछ बोलना चाह रहे हैं। जब उन्होंने सीधा ही पूछ लिया कि आप कुछ बोलना चाह रहे हैं तो विस्मृत उदय प्रकाश के मुंह से सहसा ही निकला ‘नहीं मैं तो बस सुनना चाहता हूं’। फिर उन्हाेंने साहित्यकारों को कैसे जाति के मुद्दों पर एकजुट होने और निजी मसलों में शत्रुता दरकिनार करने पर वक्तव्य दिया और सीपी देवल ने जब कहा कि लेखक समाज में आने वाले भूकंप का पूर्वअनुमान लगाने वाली चिड़ियां होते हैं तो वाजपेयी का लेखकों की निजी शत्रुता पर दिया गया लंबा व्यखायन औंधे मुंंह जा गिरा।
जब एक पाठक ने वाजपेयी साहिब के निजी जीवन और उनके व्याख्यान में विरोधाभास से जुड़े प्रशन पूछे तो उन्होंने अपनी अहसजता को चेहरे पर आने से तो रोक लिया पर अपने शब्दों में आने से ना रोक सके। सजग पाठक इस तमाशे को मुंह बाय देखने के सिवा कुछ ना कर सका, करता भी क्या।
मीडिया तमाशे के स्विमंग पूल में डूबा
अगर वह रत्ती भर किसी से उम्मीद कर भी सकता था तो मीडिया से करता, लेकिन खु़द मीडिया इस तमाशे के स्विमंग पूल में डूबा चकाचौंध का स्विम सूट पहने अपने हिस्सा की तालियां बटोरने में मसरूफ था, इसकी बानगी बरखा दत्त के शोभा डे से संवाद वाले सैशन में देखने को मिली जब उन्होंने शाहरूख ख़ान, अरनब गोस्वमी और कुछ अन्य चर्चित चेहरों से जुड़े सवालों पर तालियां बटोरने वाले जुमले हवा में उड़ाए और कुर्सी पर बैठी-बैठी अपना कद कुछ इंच बढ़ता हुआ महसूस करती नज़र आईं। उन्होंने अरनब के अंदाज़ को तो पॉपुलर कहा लेकिन खुद भी हर सवाल का जवाब पॉपुलर अंदाज़ में ही दिया।
अगर मीडिया ट्रायल वाले सैशन में शोमा चौधरी और मधु त्रेहन मीडिया पर लगने वाले गंभीर इल्जामों पर आत्म मंथन करने वाली टिप्पणियां ना देतीं तो मीडिया के लिए भी इस तमाशे में खु़द तमाशा और खु़द तमाशबीन बनने का दाग़ अपने दामन से छुड़ाना मुश्किल हो जाता।
पत्रकार की दारूबंदी!
बताते हैं कि इस बार मीडिया एक्रीडेशन के लिए भी 800 से ज़्यादा आवेदन आए, लेकिन मीडिया को भी बहुत बारीक छननी से चुना गया और उन के खाने-पीने पर भी पाबंदियां लगाई गई। आयोजन के तुरंत बाद मनीषा पांडे द्वारा न्यूज़ लांड्री पर लिखे गए लेख ने मीडिया और जेएलएफ के अंतर-संबंध का यह पहलू तार-तार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मनीषा पांडे लिखती हैं, ‘उन्हें जानकारी मिली कि इस बार पत्रकारों को वाईन के 4 ड्रिंक्स से ज़्यादा परोसे जाने पर पाबंदी थी। लेकिन इस सुविधा को काफी पाते हुए एक पत्रकार ने उनसे कहा कि काम करने के लिए सोबर रहना भी ज़रूरी है, चार ड्रिंक काफी हैं।’ है ना दिलचस्प।
यह तो हुई मीडिया की बात अब दर्शक का एक और दर्द भी सुन लीजिए, सुनने में तो यह भी आया है कि जैसे रेलवे स्टेशन पर कुली के साथ सैटिंग कर भीड़-भाड़ वाली रेलगाड़ी में सीट पक्की करवा ली जाती है, इस बार भारी भीड़ वाले सैशनों में ऐसी सैटिंग करने वालों का भी खूब जमावड़ा रहा, लेकिन फैशनेबल भीड़ में कौन कुली है कौन सवारी यह समझना हमारे बस से बाहर रहा।
‘मोदी-मोदी’ का मंत्रउच्चारण
तमाशा अभी बाकी है भोले पाठक, जेएलएफ के अंतिम दिन होने वाली बहस इसका मुख्य आर्कषण होता है और आज तक गंभीर तकरार के बावजूद वह एक सभ्य बहस रही है, लेकिन इस बार अनुपम खेर ने ना सिर्फ राजनैतिक रंगत दे देगी, बल्कि उनके साथ आई भीड़ ने उनके इशारे पर ‘मोदी-मोदी’ का मंत्रउच्चारण करके इसे राजनैतिक तमाशे की चरम सीमा पर पहुंचा दिया। जो गाली किसी गांव की चौपाल में भी धीमे से दी जाती है, अनुपम ने बलुंद आवाज़ में उसका उच्चारण कर मोदी सरकार की सहिष्णुता को स्थापित करने का ऐसा तमाशाई सिद्धांत पेश किया कि बहस शुरू होने से पहले ही पटड़ी से उतर गई।
अगर न्यूज़ लांड्री की संपादक मधु त्रेहन के शब्दों में कहें ‘बहस के अंत में उग्र भीड़ ने पाबंदियों, सेंसरशिप और अनुपम खेर जो भी कहते उसके पक्ष में वोट दिया। खेर जीत गए, दर्शक हार गए।’ किसी साहित्य उत्सव के ऐसे निराशाजनक अंत के बाद आप के पास कहने के लिए क्या बचता है। क्या अब मैं इसे ग्रेट इंडियन पोलिटिक्ली मोटिवेटेड लिटरेरी तमाशा नहीं कह सकता?

फिर भी अगर दिल की तसल्ली के लिए फिल्मी अंदाज़ मे हैप्पी एंडिंग करनी हो तो मैं कहूंगा कि क्रिस्टिना लैंब के साहसी अफगानी किस्से, उदय प्रकाश का साहित्य और निजता पर चिंतन, बंत सिहं की शौर्य गाथा, ध्रुब ज्योति बोराह, सितांषू यश्स्चंद्रा, अनिता अग्निहोत्री और के. सच्चिदानंदन के भाषा की मुक्ति पर विचार, टीएम कृष्णा का सभ्यता का मंथन के साथ-साथ महिलाओ के यौन शोषण और न्याय, स्वच्छ भारत और मेरा गांव, मेरा देश आदि सैशन में चुनिंदा लेखकों और पाठकों ने भीड़ से इतर साहित्य और संवाद को ज़िंदा रखने की भरकस कोशिश की। लेकिन अब जब आयाेजन स्थल डिग्गी पैलेस इससे ज़्यादा भीड़ को समाने में अस्मर्थ होने की मूक घोषणा कर चुका है, जब यहां की व्यवस्था चरमराने की कगार पर पहुंच चुकी है, भविष्य में इस तमाशे की भीड़ में यह साहित्य का कोना कब तक सांस ले पाएगा?
तब जब हर साल इसके बढ़ते बजट को जस्टीफाई करने, कारपोरेट के लिए और अधिक भीड़ जुटाने का टारगेट पूरा करने का दबाव बढ़ता जाएगा तो भविष्य के धुंधलके पर क्या कहूं ? या मैं भी तमाशबीनों की तरह तमाशा देखता रहूं…
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