मर्द-औरत का रिश्ता, आदम और हव्वा के ज़माने से एक अबूझ पहेली रहा है। समाज, राजनीति, न्यास व्यवस्था, रोज़गार और अकांक्षाएं इस पहेली को और भी गहरा कर देते हैं। प्रख्यात लेखिका अमृता प्रीतम औरत-मर्द के रिश्ते और प्रेम की गहराईयों को बड़ी बेबाकी से शबदों में उतराने के लिए जानीं जाती हैं। उन्हीं की कलम से उपजी पंजाबी कहानी ‘मलाह दा फेरा’ के ज़रिए वह इस रिश्ते को यथार्थवादी पात्रों के ज़रिए एक फंतासी संसार में ले जाती हैं। कहानी के अंत तक आप यही समझते हैं कि यह हाड़-मांस के पात्र हैं, लेकिन अंतिम पंक्तियों तक आते-आते पता चलता है कि यह पात्र हमारी कल्पनाओं से उपजे हैं। क्या हैं वह कल्पनाएं, जानने के लिए पढ़िए कहानी का हिंदी अनुवाद-
पंजाबी कहानी । नाविक का फेरा । अमृता प्रीतम
सागर किनारे भीड़ जमा थी। हर उम्र, मज़हब, वेषभूषा के लोग।
कुछ समंदर के सीने को बड़ी ईप्सा से नज़र के आखरी छोर तक देख रहे थे। कुछ नज़रें भीड़ में इस तरह व्यस्त थी जैसे समंदर से कोई वास्ता ही नहीं।
कुछ भुट्टा चबा रहे थे, कुछ मुंगफली छील रहे थे और कुछ नारियल पानी पी रहे थे। कुछ बच्चे अपने नन्हें हाथों से रेत के घर बना रहे थे।
समंदर का सीना झिलमिलाने लगा। कईयों के दिल धड़कने लगे। आसमान के एक कोने ने अपने हाथों में सूर्य का प्याला थामा था, जिसमें से सारी लाली समंदर के पानी में गिर रही थी।
पानी को चीर कर आती नौका का वजूद अब नज़़र आने लगा। कईयों ने बिल्कुल ध्यान ना दिया, लेकिन कईयों के हाथों से भुट्टे छूट गए, मुंगफलियां फिसल गई और नारियल पानी छलक गया।
लहरे साज़ सी बज रही थीं, चप्पू की आवाज़ ताल देने लगी और नाविक का गीत किनारे के पास आने लगा।
नाविक का गीत जादू करने की बजाए जादू का असर कम कर रहा था, किनारे पर खड़े कई जोड़ों के हाथ छूट गए। जैसे-जैसे आवाज़ तेज़ होती गई, नाव किनारे के नज़दीक आती गई, कई आखों में धूप चमकी, कईयों की आखों में बादल छाए और कईयों में बूंदाबांदी होने लगी।
नाव को किनारे लगा नाविक ने लोगों की ओर देखा और पूछा, ‘है कोई सवारी?’
नाविक के चेहरे की लालिमा का असर बहुत गहरा था, लोगों ने नज़रें झुका लीं। नाविक किनारे की रेत पर बैठ हुक्का गुड़गुड़ाने लगा।
सूरज का प्याला लुढ़क गया और समंदर पल भर में उसकी लालिमा पी गया। अब समंदर रात के अंधेरे को घूंट-घूंट पीने लगा। लोग घर की ओर चल दिए।
नाविक ने हुक्का रखा और उठ कर समंदर के ख़ाली किनारे को देखने लगा, पानी की कोई लहर पूरी ताकत से आती और भुट्टों के ठूंठ, मुंगफली के छिलके और नारियल के खोल समेट कर रेत बुहार देती। लोगों के पैरों के निशान भी बुहारे गए और बच्चों के बनाए हुए घर भी।
नाविक ने दूर नारियल के झूंड में बनी झुग्गी की ओर देखा। दिया अभी जल रहा था। नाविक नपे कदमों से झुग्गी कीे ओर चल पड़ा।
‘जग रही हो अभी?’ नाविक ने अधखुले दरवाज़े पर दस्तक दी।
‘चले आओ! तुम्हारा ही इंतज़ार कर रही थी’ झुग्गी से औरत की आवाज़ आई, ‘यहां बैठो’ कहते हुए कोने में बिछी बोरी को फिर से झाड़ कर बिछा दिया।
‘कोई यात्री नहीं मिला’, नाविक ने गहरी सांस ली।
‘मैं तो कहती हूं रोज़-रोज का बखेड़ा छोड़ क्यों नहीं देते? कभी कोई यात्री मिला भी है? बताओ नारियल पीयोगे?’
‘नारियल पीने ही तो आया हूं।’
‘कौन सा दूं? पानी, मलाई या गिरी वाला?’
‘मन बहुत उदास है, तीनों ही पिला दो। पहले पानी, फिर मलाई और फिर मोटी गिरी वाला।’
औरत ने टोकरी से तीन नारियल लिए और एक-एक तोड़ती, नाविक के हाथ में देते हुए कहने लगी, ‘मीठे हैं कि नहीं?’
‘बहुत मीठे हैं’, कच्ची गिरी का टुकड़ा तोड़ कर महिला के हाथ में देते हुए नाविक ने कहा, ‘लो तुम ख़ुद देखो।’
‘शुक्र है तुम कुछ पल के लिए आ जाते हो, वर्ना यह नारियल के पेड़ मैं काट दूं।’
नाविक मुस्कुराते हुए कहने लगा, ‘तभी कहती हो रोज़ का बखेड़ा छोड़ दू? अगर मैं यात्रियों की उम्मीद छोड़ दूं, और नाव लेकर कभी इस किनारे ना आयूं तो तुम नारियल के पेड़ क्यों रोपोगी?’
‘ठीक कह रहे हो’, औरत ने सिसकी ली।
‘मुझे कोई यात्री नहीं मिलता। कभी-कभार उदास हो जाता हूं तो मन करता है तुम्हें अपनी नाव में बिठा कर ले जायूं।’
‘कई बार कह चुके हो, पर यह तुम्हारे बस की बात कहां।’ औरत ने चुनरी के कोने से आंखें पौंछी।
‘इसी बात का तो दुख है,’ नाविक ने लंबी सांस ली।
‘प्राकृति ने कैसे नियम बनाए हैं।’
‘औरत के मन में एक पुरूष के लिए सदैव ईप्सा और पुरूष के मन में एक औरत के लिए सदैव आकर्षण रहता है। प्राकृति के इस नियम को कौन तोड़े? ’
‘लेकिन औरत को कभी वह पुरूष नहीं मिला, जिससे उसकी भटकन ख़त्म हो और पुरूष को वह औरत नहीं मिली जिससे उसकी तृष्णा को विराम मिले।’
‘मन का इतना बड़ा समंदर किसी से पार नहीं होता, इसी लिए मैंने नाव बनाई, लेकिन समंदर के दूसरे छोर पर जीवन की वादी सुनसान है, मुझे कोई यात्री नहीं मिलता, उस ओर ले जाने को।’
‘और ईधर कीड़े-मकौड़ों की तरह है दुनिया, रहने को घर नहीं, खाने को रोटी नहीं। बिना आसरे के पैदा होते हैं लोग, मोहताजों की तरह जीते हैं।’
‘फिर भी सब इधर ही रहते है।’
‘भाड़ा कौन चुकाए? तुम मांगते हो साबुत दिल, कईयों के पास हैं भी, लेकिन तुम्हारी शर्त भी अजीब है कि नाव ने ना कोई औरत अकेली जा सकती है ना कोई पुरूष। औरत मर्द दोनों के पास हों साबुत दिल, वह दोनों सिक्के एक दूसरे के सिर से उसार कर तुम्हें दें तभी वह नाव में बैठ सकते हैं।’
‘मेरा कोई दोष नहीं, कुदरत के नियम हैं, वर्ना तुम्हें नाव में बिठा कर ले जाता। जीवन की वादी में तुम बहुत सुंदर घर बनाती।’
‘मेरे ग़म को क्यों टटोलते हो? अब मेरी उम्र ढल चली। यादों के ज़ख़्म भी भर गए।’
‘जख़्म ही तो नहीं भरते पगली। तुम्हें क्या लगता है ज़ख़्म सिर्फ़ यौवन के बदन पर होते हैं। यह जिस्म का नहीं रूह का दर्द है और रूह की कभी उम्र नहीं ढलती।’
औरत ने सिर झुका लिया, उसकी रूह के सारे ज़ख़्म रिसने लगे हों।
‘तुम भूल गई जब एक मर्द तुम्हारा हाथ पकड़ मेरी नाव में बैठने आया और किनारे पर खड़ी लड़कियों के चेहरे देख भ्रमित हो गया। उसका दिल साबुत ना रहा, मेरा भाड़ा ना चुका सका और तुम्हारा हाथ छोड़ भीड़ में खो गया।’
‘बस, मेरे जख़्मों को मत कुरेदो’, वह रोने लगी।
‘मत रो। नहीं करता उसकी बात। सुनाओ, तुम्हारे शहर का हाल कैसा है? इसे दुनिया कहते हैं ना?’
‘मेरे शहर का हाल तुमसे छुपा है क्या’ औरत ने सिसकियां भरते हुए कहा।
‘मैं शहर गया ही नहीं कभी, किनारे से लौट जाता हूं। औरतें और पुरूष कैसे रहते हैं एक साथ?’
‘औरतों को तूफानों से बचने के लिए घर का आसरा चाहिए, मर्द को दिन-रात की गुलामी के लिए औरत से बेहतर गुलाम नहीं मिल सकता, वह रोटी कपड़ा देकर सौदा कर लेता है। शहर में इसे शादी कहते हैं।’ औरत ने बताया।
‘शादी से उनकी उम्र का पेट भरा रहता है?’
‘कहां भरा रहता है, भूखा रहता है। कभी दिन-रात के साए में कोई मर्द पल भर के लिए किसी की औरत चुरा लेता है, तो कोई औरत पल भर के लिए किसी का मर्द छीन लेती है।’
‘सुना है शहर में बहुत सुंदर इमारतें हैं, सब मिल कर बैठते, हंसते, नाचते-गाते हैं।’
‘तुम जानते ही हो कि समंदर का पानी पहले बहुत मीठा था, लेकिन लोगों ने जूठे वादे इसमें गिराए और समंदर का पानी खारा हो गया। अब लोग चावल और फलों को उबाल कर एक तरल सा बना लेते हैं, उसमें पता नहीं क्या होता है, उसे पीते ही लोग पल भर में ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगते हैं, गाने और नाचने लगते हैं। जब उसका असर ख़त्म हो जाता है तो पीले से पड़ जाते हैं।’
‘लोगों और हकूमत करने वालों का कैसा रिश्ता है?’
‘सत्ता की कुर्सी ना जाने किस लकड़ी की बनी है, जो भी बैठता है, सिर घूम जाता है उसका!’
‘परिश्रमी कितने हैं लोग?’
‘कुछ तो जी-जान से मेहनत करते हैं, कुछ हाथ तक नहीं हिलाते। लेकिन ऐसे लोगों में यह हुनर है कि दूसरों की मेहनत का फायदा ख़ुद ले लेते हैं।’
‘न्याय नहीं है शहर में?’
‘कहते हैं कि बगावत का फतवा दे कर उसे शहर से बाहर निकाल दिया।’
‘अब न्याय कहां रहता है?’
‘कहीं किसी के मन में छिप कर, अदालत में नहीं रहता अब।’
‘सुना है लोगांे ने नए आविष्कार किए हैं?’
‘किसी अनाड़ी के हाथ में छुरी आ जाए तो वह कुछ तराशने की बजाए काटने में लगता है। पहले लोग अविष्कार करते हैं, फिर उससे दूसरों को दबाने लगते हैं।’
‘और क्या पुछूं?’
‘कुछ नहीं। तुम्हें सब पता है। बहुत खिसियाने हो तुम।’
‘तुम्हारे शहर में लेखक भी तो होंगे?’
‘हैं, लेकिन वह ज़ोर से नहीं बोल सकते, नहीं तो शहर से निकाल दिए जाएंगे। प्रतीकों से वह जीवन की वादी की कुछ बातें करते हैं, मन के समंदर की और तुम्हारी बातें।’
‘मेरा नाम पता है उन्हें?’
‘हां, सब को पता है तुम्हारा नाम, स्वपन!’
उसने सिसकी भरते हुए कहा, ‘फिर कोई मेरी नाव में समंदर को पार क्यों नहीं करता?’
‘तुम्हारी शर्त पूरी नहीं कर सकते’ औरत ने ठंडी सांस ली और कहा, ‘तन की जेब में कईयों के पास देने के लिए मन का भाड़ा है, लेकिन उन्हें अपना साथी नहीं मिलता। तुम्हारे गीत वह कई बार गाते हैं, लेकिन उनके साथी उन संग नहीं गुनगुनाते।’
नाविक ने नज़रें झुका लीं।
‘एक बात पूछूं’ औरत ने धीरे से कहा।
‘पूछो।’
‘वो कैसा है, जो मेरा हाथ पकड़ तेरी नाव में बिठाने लाया था?’
‘तुम नारियल बेचती हो, वह चाय।’
‘कोई औरत होगी उसके पास?’
‘कई आई, कई गईं।’
‘वह किसी का हाथ पकड़ तेरी नाव में नहीं चढ़ा?’
‘उसके पास भाड़ा कहां है।’
औरत की आखें फिर भर आईं।
‘मैं जायूं’ नाविक ने पूछा।
‘जैसे तुम्हारी मर्ज़ी’
‘मेरी औरत मेरा इंतज़ार कर रही होगी। मेरी कल्पना’ नाविक उठ कर चलने लगा।
औरत ने दरवाज़ा बंद किया। दिया बुझा दिया। समंदर की लहरे साज़ सी बज रहीं थी, चप्पुओं की आवाज़ ताल दे रही थी, नाविक का गीत किनारे से दूर जा रहा था।
-अमृता प्रीतम
पंजाबी की लोकप्रिय लेखिका
अनुवाद: दीप जगदीप सिंह
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