वह मुहल्ले के सबसे हेंडसम जेंटलमैन थे। सादे लेकिन बेहतरीन ढंग से कपड़े पहनने में उनका काेई सानी नहीं था। कई पगड़ी बांधने वाले लड़के उनके पगड़ी के पेचाें, जिन में एक भी बल नहीं हाेता था, से जलते थे और उन जैसी पगड़ी बांधना सीखने के बहाने ढूंढते रहते थे।
अकसर अल सुबह, चमकता हुआ सफ़ैद पयजामा और आधी बाजू वाली बनियान पहने, वह हमारे घर के सामने वाली कपड़े इस्त्री की दुकान पर खड़े हाेते। जब वह हमें वहां खड़े अख़बार पढ़ते, गप्पे हांकते और बेलाैस हंसते हुए नज़र आते, ताे असल में उनकी तिरछी नज़र कपड़े इस्त्री करने वाले पर लगी रहती और इस्त्री वाला तब तक लगा रहता जब तक आख़री बल ना निकाल दे। इसी लिए वह वहीं खड़े रह कर कपड़े प्रैस करवाते थे।
स्कूल जाते वक्त हम उन्हें अच्छी सी फिटिंग वाली पतलून, अंदर खाेंसी हुई कमीज़, मैचिंग पगड़ी और कस के बंधी हुई दाढ़ी और चमकते हुए काली पॉलिश वाले जूते पहने बजाज चेतक स्कूटर पर चढ़ कर जाते हुए देखते। उनका स्कूटर आज भी मुहल्ले के सबसे पुराने बजाज चेतक स्कूटराें में से एक है। पेशे से वह फर्मासिस्ट थे। कई बड़ी दवा कंपनियाें में एमआर की नाैकरी करने के बाद उन्हाेंने अपनी दवा की दुकान खाेली थी, जहां पर वह अपने बेटे और भतीजे काे दवाईयाें की बारीकियां सिखा कर अपनी विरासत संभालने के लिए तैयार कर रहे थे।
बीयर चाचा चले गए #ATrueStory
अपने हंसमुख स्वभाव की वजह से वह मुहल्ले के ज़्यादातर बच्चाें के ‘चाचा’ थे और हंसाैंड़ इतने कि कपिल शर्मा भी उनके सामने फ़ेल हाे जाए। सज-धज कर निकलने और गली में बच्चाें संग खेलने के अलावा उनका सबसे बड़ा शाैक था शराब…
वह शराब के कैमिकल फार्मूले और इसके शरीर पर हाेने वाले असर से अच्छी तरह वाकिफ़ थे, लेकिन यह जानकारी भी कभी उन्हें शराब का मज़ा लेने से राेक नहीं पाती थी। जब हम शाम काे गली में खेल रहे हाेते ताे वह धीरे से मेरी जेब में कुछ नाेट खिसका देते और उनकी पसंद का अध्धा/बोतल लेकर उनकी छत पर पहुंचने के लिए कहते। एक मूक समझाैता यह भी था कि उनकी छत पर जाने के लिए, दाख़िला उन के घर से नहीं हाेगा।
उनका सामान लेकर मैं अपने घर की छत पर जायूंगा और घर के पिछवाड़े की छाेटी दीवार फांद कर एक और छत काे हल्के कदमाें से पार करते हुए एक और छाेटी दीवार से लपक कर उनकी छत तक पहुंचुंगा, जहां अंधेरे में वह स्टील के जग और गिलास के साथ मेरा इंतज़ार कर रहे हाेते। मैं उन्हें उनका कांच का सामान और प्लेन साल्टेड पीनेट का पाऊच उन्हें थमाता। वह जल्दी-जल्दी पैग बनाते और गटकते जाते। दो पैग के अंतराल में वह कुछ पल के लिए रुकते, पीनेट के दाने चबाते, कुछ दाने मुझे देते और कुछ हंसी ठिठोली करते। फिर मैं उसी तरह अपने घर लौट जाता, जैसे दीवार कूद-फांद कर आता था।
अभी मैंने बालिग होने की दहलीज़ पार ही की होगी, एकदिन जेब में पैसे खौंसते हुए बोले, ‘आज एक बीयर भी लेकर आना।’ मैंने उनका अध्धा और एक बीयर लेकर उनकी छत पर पहुंच गया। बीयर का ढक्कन दांतों से खोल कर मेरी ओर बढ़ाते हुए बोले, ‘लगा ले!’ मैं एक दम सकपका गया और झिझकते हुए मना करने लगा, क्योंकि ना तो पहले मैंने कभी लगाई थी और ना लगाने के बारे में सोचा था। फिर भी मैंने घूंट-घूंट कर आधे घंटे में बोतल ख़त्म कर दी। वापिस घर जाकर चादर तले सिर घुसा कर सो गया। उसके बाद कामकाज के चलते मैं अपना शहर छोड़ कर बाहर चला गया। हमारी मुलाकातों में लंबा अंतराल आ गया।
लेकिन बीयर चाचा के लिए किसी अंतराल का कोई मतलब नहीं था, बावजूद इसके कि उनके धार्मिक स्वभाव के पिता की सख़्त मनाही और उनकी पड़ौसन प्रियेसी, जो अब उनकी पत्नी और उन के बच्चों की मां हैं की नाराज़गी के बावजूद वह धरती पर मौजूद अपने हिस्से की शराब चाेरी-चाेरी पीने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं देते थे।
दशक बीत गए, जब भी में अपने शहर, अपने घर जाता तो किसी ना किसी गली के मोड़ पर वह मुझे मिल ही जाते और वही आत्मीयता भरी मुलाकात और हंसी-ठिठोली होती।
अभी वह अपनी उम्र के पचासवें दशक को पूरा भी नहीं कर पाए थे कि उनके अंगों ने और शराब लेने से मना कर दिया। डॉक्टरों ने उन्हें बस करने के लिए कहा, पर उनके दिवंगत पिता उनको नहीं रोक पाए थे और वह अब ख़ुद के रोके से भी नहीं रुकते थे। वह तब तक पीते रहे जब तक उन्हें हस्पताल में भर्ती नहीं करना पड़ा।
लेकिन अब हस्पताल से लौट कर वह कभी नहीं पीएंगे। एक दिन अर्से बाद घर आया तो मेरी मम्मी ने बताया कि उस सुबह चाचा नहीं रहे। मेरे मन में एक आवाज़ बुदबुदाई, ‘वो बंदा जिसने मुझे मेरे जीवन की पहली बीयर पिलाई, वो हमेशा के लिए चला गया… बीयर चाचा चला गया’
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