रात के दो बजे मैं आँखें मूंदे सोच रहा था, भगत सिंह का दिन आ रहा है। विचार की चिड़िया ने अभी पंख खोले ही थी कि मैंने विचारों की दुनिया के अंदर धुएँ के बादलों में से एक परछाई को निकलते देखा। इस आत्मा के माथे पर चिंता की लकीरें साफ झलक रही थीं। इससे पहले कि मैं कुछ पूछ पाता, उसने मुझे कुछ लिखने के लिए इशारा किया और मेरी कलम कागज़ पर जम गई, उसने लिखवाया-
सबसे पहले मैं अपने देश के नेताओं, राजनीतिक दलों, संगठनों और गणमान्य व्यक्तियों से अनुरोध करना चाहूंगा कि इस बार चौक में मेरी और मेरे साथियों की मूर्तियों के गले में मालाओं के ढेर न पहनाएं जाएं, क्योंकि आज-कल देश की फिज़ा में ही बहुत घुटन महसूस कर रहा हूं। फूल-मालाओं का पहाड़ खड़ा करके आप हमारे लिए सांस लेना भी मुश्किल कर देते हैं। वैसे भी आप 23 मार्च या 28 सितंबर को फिर से आकर ही दोबारा हमारा हाल पूछेंगे तब तक इन मालाओं के मुरझाए फूलों के ढेर हमारा दम घोंटते रहेंगे।
इसके बाद मैं देश के उन आम लोगों से माफ़ी मांगना चाहता हूं जिन्हें हमने विदेशियों की ग़ुलामी से आज़ाद करवा कर अपनों के ग़ुलाम बना दिया। हम बस इतना कर सके कि आप चुनाव के जरिए अपने भाग्य का मालिक ख़ुद चुन सकें।
वह अपने जाने-पहचाने रोष भरे स्वर में बोलता जा रहा था। फिर वह अपनी चिंता का असली कारण बताने लगा। कहा, देश का हाल जानने के लिए मैं संसद भवन गया था, लेकिन वहां कोई नहीं था। अचानक मेरी नज़र वहां रखी एक फाइल पर पड़ी। फ़ाइल के हर पन्ने को पढ़ते हुए मेरी आँखें खुली की खुली रह गईं। घोटालों, दंगों और सफ़ेदपोशों के चेहरों पर काले धब्बे पोतती कानून की धाराओं की लम्बी फेहरितस्त पढ़ते-पढ़ते मेरे होश उड़ गए।
एक पल तो मुझे लगा कि मैं बुरी तरह टूट गया हूं। मुझे लगा कि मैं उन सभी का गुनहगार हूं जो मेरे कहने पर हंसते-हंसते फाँसी का फंदा चूम गए, सीने पर गोलियां झेल गए। मुझे लगा कि हमारा बलिदान व्यर्थ गया। लेकिन एक बार फिर मेरे अंदर आज़ादी की दूसरी जंग लड़ने की तीव्र इच्छा जाग उठी। फिर चाहे दोबारा फांसी के फंदे पर ही क्यों न चढ़ना पड़े।
यह सोचकर मैंने बाज़ार में खड़ा हो कर नारा लगाया… इंकलाब ज़िंदाबाद!!!, लेकिन कहीं से भी मुझे युवाओं के वो झुंड आते हुए नज़र नहीं आए, जो पहले मेरी एक आवाज़ पर अपने हाथों की मुट्ठियां हवा में लहराते, इंकलाब का नारा लगाते हुए, जान हथेली पर रख कर आ जाते थे और पहाड़ों तक से टकराने के लिए तैयार हो जाते थे।
एक बार फिर मैं सोच में डूब गया। कहाँ गए मेरे देश के नौजवान? मैंने घर-घर जाकर उन्हें खोजने की कोशिश की, लेकिन मेरे पैरों तले से ज़मीन निकल गई जब मैंने बेरोज़गारी से हारे मेरे देश के नौजवानों को नशे की ग़ुलामी करते हुए देखा। मेरे मन में सवाल उठा के यह क्या हो गया? मेरी मातृभूमि को क्या हुआ? मुझे पता तक ना चला। थक हार कर मैं लौट ही रहा था कि मेरी नज़र तुम्हारे कमरे की दीवार पर लगी मेरी तस्वीर पर पड़ी।
मैं समझ गया कि मुझे एक बार फिर आना होगा। मैंने फ़ैसला किया है कि मैं इन सभी युवाओं को जगाऊँगा और उनसे शपथ लूंगा कि जब तक आप देश को ग़रीबी, भूख, भ्रष्टाचार और गंदी राजनीति से मुक्त नहीं करा देंगे, तब तक आप चैन से नहीं सोएंगे। बस इसी इरादे से मैं सब को जगाने निकला पड़ा हूं। तुम भी उन सब से कह, ”दो, उठो! नौजवानों, जागो, भगत सिंह बुला रहा है!”
उठो!…
उठो!!…
उठो!!!…
दूर जाता हुए वह कहता रहा और फिर धीरे-धीरे नज़रों से ओझल हो गया।
-दीप जगदीप सिंह
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