*दीप जगदीप सिंह*
रेटिंग – साढ़े तीन बटे पांच
इरादा पंजाब की कोख में फैलते ज़हर की कहानी है, जो असलियत के बेहद करीब भी है और उसमें थोड़ी सी फिल्मी अतिरेकता भी है। लेकिन यह अतिरेकता हर आम पंजाबी के अंदर धधकते लावे की शिनाख्त करती है, जिसे पाॅप कल्चर और नशाखोरी ने दबा के रखा है।
पंजाब की उपजाऊ भूमि का केंद्र और अनाज का भंडार कहे जाने वाला बठिंडा शहर, जो अपने थर्मल प्लांट की गंगनचुंबी चिमनियों और विहंगम तेल रिफाइनरी से पहचाना जाता है। उसके बीचों-बीच बनी झील और गुज़रती नहर भी इसकी एक ख़ास निशानी हैं। उसी शहर में रिटायटर्ड फौजी अफ़सर प्रभजीत वालिया (नसीरूदीन शाह) अपनी जवान होती बेटी रिया (रूमाना मोला) के सपनों को एक अनुशासन से तरतीब देने की जदोजहद में लगा हुआ है। एक दिन अचानक एक ख़तरनाक बीमारी आकर रिया की आखों से प्रभजीत के देखे सपनों पर वक्त की ऐसी सुई चुभती है, जो सब कुछ ख़त्म कर देती है। रिटायरमेंट और रिया के बाद अब प्रभजीत एक मोटीवेशनल स्पीकर और लेखक है जो आसपास के माहौल पर पैनी नज़र रखता है। उसकी नज़र क्षेत्र की सबसे बड़ी दवा कंपनी पीपीएफपीएल के मालिक पैडी एफ शर्मा (शरद केलकर) पर बाज़ की तरह गढ़ी हुई है और उसके घेरे में पंजाब की मुख्यमंत्री रमनदीप बड़ैच (दिव्या दत्ता) भी है। एक दिन अचानक पीपीएफपीएल में ज़ब्रदस्त धमाके होते हैं, जो पैडी की उद्यौगिक सल्तनत के साथ-साथ बड़ैच की सियासी सल्तनत की जड़ें भी हिला देते हैं। इस केस की इंवेस्टिगेशन करने (असल में केस को दबाने के लिए) एनएसजी अफ़सर अर्जुन मिश्रा (अरशद वारसी) को केंद्र से बुलाया जाता है, जो अपने अफ़सरों की टीम के साथ मामले को ‘ठिकाने’ लगाने में जुट जाता है।

उधर आरटीआई एक्टीविस्ट (निखिल पांडे) के हाथ पीपीएफपीएल से जुड़े कुछ ऐसे सुबूत लग जाते हैं जो पैडी की ‘लंका’ राख करने के लिए काफ़ी हैं, लेकिन बचपन से अपने दुश्मनों को पानी में गोते लगा कर मार देने वाला पैडी पांडे की लाश भी नहर में फिंकवा देता है, अपने प्रेमी की मौत का बदला लेने और पैडी और बड़ैच की पंजाब की कोख में ज़हर घोलने की साजिश को बेनकाब करने के लिए माया (सागरिका घटगे) जी तोड़ कोशिश करती है। कैसे माया और अर्जुन के सिरे जुड़ते हैं? कैसे वह इस पूरे ढांचे को समझते हुए कुछ ज़मीनी तल्ख़ सच्चाईयों के रूबरू होता है? कैसे अर्जुन का हृदय परिवर्तन होता है और क्या वह इस अमेघ चक्रव्यूह को तोड़ने में सफ़ल हो पाता है? इरादा की कहानी इसी केंद्र की धुरी पर घूमती है।
अनुशका राजन के साथ मिल कर अपर्णा सिंह ने जो कहानी लिखी वह पंजाबी की ज़मीनी हकीकत को बयान करती है। उड़ता पंजाब जहां पंजाब में नशे के कारोबार और उससे पंजाबी की युवाओं की तबाह होती जवानी पर एक उड़ती नज़र ढालती है, वहीं इरादा पंजाबी की ज़मीन खोद कर उसके भूमिगत पानी, मिट्टी, फसलों और मांओं के दूध में घोले जा रहे कैमिकल ज़हर को सतह पर ले आती है। अपर्णा और अनुशका ने अद्यौगिक प्रदूषण के ज़रिए बंजर और ज़हरीली होती देश के अनाज का भंडार कही जाती भूमि का विश्लेषण तकनीकी स्तर पर जाकर पूरी गहराई से किया है। बस वह अपना पूरा ध्यान अद्यौगिक प्रदूषण पर केंद्रित कर लेती हैं और कृषि कीटनाशकों की भूमिका को अपनी शोध के दायरे से बाहर रखती हैं। वो दिखाती हैं कि कैसे पैडी रिवर्स बोरिंग तकनीक के ज़रिए दवा कंपनी से निकलने वाले ज़हरीले रासायणिक कचरे को ज़मीन के गहरे गर्भ में ढाल देता है, जिससे प्रकृति पानी और मिट्टी की तासीर ही ज़हरीली हो जाती है। एक तरफ वह पानी और मिट्टी के प्रकृतिक स्रोतों को मलीन कर रहा है, वहीं दूसरी और नहरों और नालों में ज़हरीला कचरा बहा कर सतही स्रोतों को भी बर्बाद करता है। इस वजह से पूरे क्षेत्र के हर घर में कम से कम एक कैंसर का मरीज़ है। वह यही नहीं रूकता, बल्कि इस प्रदूषण की वजह से पूरी मालवा पट्टी में फैल रहे कैंसर को छुपाने के लिए वह एक समानांतर धंधा चलाता है जो असली रक्त के नमूनों को गायब करके नकली रक्त के नमूने तैयार करता है। रक्तदान कैंप लगाता है। बठिंडा लालगढ़ पैसेंजर रेलगाड़ी संख्या 54701 कैंसर के सस्ते इलाज के लिए बीकानेर ले जाने वाली मरीज़ों की स्थायी एंबुलेंस बन चुकी है और उसका नामकरण कैंसर एक्प्रैस हो चुका है। उस रेलगाड़ी में इंश्योरेंस कंपनियां कैंसर पीड़ितों के परिवार वालों को बीमा और रक्त बेचते हुए नज़र आते हैं। पहली बार निर्देशन कर रही अपर्णा ने जितनी बारीकी से रिसर्च की है, उतनी ही बारीकी से इन दृश्यों को पर्दे पर उतारा है, जिस वजह से यह पर्दे पर उतने ही असली लगते हैं, जितने यह असलियत में हैं। अर्जुन का हृदय परिवर्तन करने वाला ट्रेन का यह दृश्य इरादा की बड़ी उपलब्धि है। उसके साथ ही सिंघम की फिल्मी अतिरेकता और असली पुलिस अफ़सर के सिंघम बनने की खाई को जिस तरह से पाटा गया है, वह गौर करने लायक है।
अपर्णा ने किरदारों को जिस गहराई से गढ़ा है, वह भी इस फिल्म की ख़ासियत हैं। दोनों प्रमुख किरदारों में नसीरूदीन शाह और अरशद वारसी ने उम्मीद के मुताबिक जान डाल दी है। जहां नसीरूदीन शाह अपने ए वेडनेसडे वाले किरदार को इरादा में विस्तार देते हुए नज़र आते हैं वहीं अरशद जिस ख़ूबसूरती से अपने किरदार को अंडरप्ले करते हैं, वह उसमें और गहराई भर देता है। लगता है नसीरूदीन शाह के इस किरदार के कई आयाम अभी अन्य निर्देशक अपनी फिल्मों में भुनाएंगे। मदारी में इरफ़ान वैसे ही किरदार में ढलने की कोशिश करते हुए नज़र आते हैं, इरफ़ान भी कम नहीं हैं, लेकिन नसीर आखि़र नसीर हैं। दबंग मुख्यमंत्री के किरदार में दिव्या दत्ता शुद्ध पंजाबी गालियां बकती हुई और पूरी ठसक दिखाती हुई नज़र आती हैं। इसी वजह से कहीं-कहीं पर यह किरदार स्टिरियोटाईप होता हुआ लगता है, लेकिन दिव्या फिर भी इसे पूरे आत्म-विश्वास के साथ निभाती हैं। बहुत देर बाद दिव्या किसी दमदार किरदार में नज़र आई हैं। कुछ समीक्षकों ने पैडी के नामकरण को अटपटा बताया है, लेकिन मैटाफर के लैवल पर इस नाम में भी एक गहराई है। मुझे पता नहीं कि अपर्णा या अनुशका ने यह नाम रखते वक्त ऐसा सोचा होगा कि नहीं पर पैडी के मैटाफर की फिल्म और असलियत के लिहाज़ से दोहरी भूमिका है। पैडी का शब्दार्थ धान होता है और पंजाब धान की खेती के लिए देश के कुछ प्रमुख राज्यों में से एक है, लेकिन सच्चाई यह है कि धान पंजाब की भूमि और मौसम की फसल नहीं है। लेकिन मुनाफा आधारित फसल होने की वजह से हरित क्रांति के बाद पंजाब का किसान गेहूं और धान के फसली चक्र में फंसता है। धान की फसल बहुत ज़्यादा पानी मांगती है, जिस वजह से पंजाब में भूमिगत जल का संकट गहरा गया है। पैडी का किरदार यही दोहरी मार का मैटाफर लगता है। एक तरफ खेतों में खड़ी धान पंजाब की ज़मीन का पानी चूस रही है तो दूसरी ओर पैडी एफ शर्मा गहरे होते जा रहे भूमिगत पानी में रिवर्स बोरिंग के ज़रिए ज़हर मिला रहा है। इस वजह से यह नामकरण मुझे बेहद सार्थक लगता है। इस फिल्म और इसके किरदारों को समझने के लिए पंजाब की ज़मीनी हकीकत को समझना होगा।
इरादा की लेखक जोड़ी सीने में धधकती आग को व्यक्त करने के लिए दुष्यंत कुमार की ‘मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए’ और नवाज़ देवबंदी की ‘जलते घर को देखने वालों फूस का छप्पर आपका है/आपके पीछे तेज हवा है आगे मुकद्दर आपका है’ शायरी को संवाद के रूप में इस्तेमाल करती है। यहीं नहीं जिस तरह वह दमदार तरीके से वह इस शायरी को संवाद बनाती हैं, वहीं उस मौके का विज़ुअल ट्रीटमेंट और सक्रीनप्ले की टाईमिंग इसे और भी धारदार बनाते हैं। जहां यह संवाद लेखक जोड़ी और निर्देशका की विचारधारा की ओर संकेत करते हैं, वहीं अंत में नसीर से कहलवाना कि वह अपना नाम चे ग्वेरा रखना चाहेंगे इस विचारधारा को मुखर रूप से स्पष्ट भी कर देते हैं।
ऐसा नहीं है कि फिल्म पिक्चर परफैक्ट है। सिनेमेटोग्राफी और एडिटिंग में काफ़ी गुंजायश है। माया और पांडे का सब-प्लाट अधपका है और उसे मुख्य नैरेटिव से सहजता से नहीं जोड़ा जा सका है। पहले हाफ़ में पटकथा की चाल और चुस्त हो सकती थी। नसीर को छोड़ कर ज़्यादातर किरदारों को जल्दबाज़ी में पर्दे पर उतारा गया है। हां, एडिटिंग में रफ़ पैचिंग को प्रयोग किया गया है जो फिल्म को एक राअ लुक प्रदान करता है। बैकग्राउंड स्कोर फिल्म के माहौल को बनाए रखता है। गीत-संगीत को सीमित रखना कहानी की मांग था, इसमें निर्देशिका सफल रहती हैं। शुरूआत में कहानी के असलियत से मेल खाने से होने वाले विवाद और असुविधा से बचने के लिए लंबा-चैड़ा डिस्क्लेमर दिया गया है, जो इस फिल्म की गंभीरता को प्रमाणित करता है।
विवाद की वजह से जहां उड़ता पंजाब जैसी पाॅपलुर अंदाज़ की फिल्म काफी चर्चित रही, वहीं गंभीर इरादा कम प्रचार के बिना लगभग नज़रअंदाज़ ही होती हुई नज़र आ रही है। दुनिया भर में फैले पंजाब के दर्शकों और पंजाब की समस्याओं पर चिंतन करने वाले लोगों को यह फिल्म ज़रूर देखनी चाहिए। एक इमानदार कोशिश और ज़मीनी हकीकतों से जुड़ी इरादा को साढ़े तीन स्टार मिलने ही चाहिए।
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