Film Review । कैसी है ये हमारी अधूरी कहानी !

दीप जगदीप सिंह

क्यों हिंदी फिल्मों में ‘हमारी अधूरी कहानी’ मर कर ही पूरी होती है? क्यों हमारे यहां प्यार जीते जी हासिल नहीं होता? क्यों प्रेमियों के चेहरे पर मुस्कुराहट मरने के बाद ही आती है? सबसे बड़ा सवाल के क्यों प्रेमी मरने के लिए हर पल तैयार रहते हैं?


मोहित सूरी की ‘हमारी अधूरी कहानी’ एक बार फिर उसी स्टीरियोटाइप को स्थापित करने की कोशिश करती है कि हमारे देश में प्रेम और प्रेमी परंपराओं के बंधनों में बंधे हुए हैं और उन्हें प्रेम को हासिल करने के लिए मौत को गले लगाना ही होगा। यही नहीं उनकी आत्माएं तभी मिलती हैं जब दोनों प्रेमियों के अवशेष एक ही जगह पर मिलते हैं। इक्कसवीं सदी में प्रेम चाहे टवीटर और वट्स एप में सिमट गया है। प्रेमियों और प्रेम के मिलन के लिए साधन और संभावनाएं बढ़ गई हैं। प्रेमी को प्रेमिका की एक झलक पाने के लिए अब कई दिन इंतज़ार नहीं करना पड़ता, जब दिल किया तभी तुरंत ताज़ा तस्वीर और लाइव वीडियो शेयर हो जाती है। मोहित सूरी के प्रेमी भी इसी तरह प्रेम करते हैं, लेकिन उनका मिलन कई दशकों पुराने अंदाज़ में अस्थि विसर्जन के बाद ही होता है।
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महेश भट्ट ने अपनी कहानी में अपने दौर की परंपराओं और नए दौर की हाई टैक मोहब्बत को गढऩे की कोशिश की है,जिसमें वसूधा (विद्या बालन) एक पांच साल के बच्चे की मां है, जिसका पति (राजकुमार राव) कहीं गायब हो गया है। अपनी उम्र जितना लंबा इंतज़ार कर चुके बच्चे को वह पापा के लौट आने का झूठा दिलासा देती रहती है। परिवार के दबाव में की गई शादी के दिन पहनाए गए मंगलसूत्र और अगले ही दिन ज़ब्रदस्ती हाथ पर गुदवाए गए पति के नाम से पांच साल तक वह आस की डोर बांधे रखती है। पति के इंतज़ार में नौकरी कर बच्चे का भविष्य संवारने में जुटी रहती है। अचानक एक दिन उम्मीद की यह डोर भी टूट जाती है, जब उसके खोए हुए पति का नाम पुलिस की मोस्ट वाटेंड लिस्ट में होने का पता चलता है। अभी वह अपने आप को संभाल भी नहीं पा रही होती कि सावन की बारिश की तरह होटेलियर आरव (इमरान हाशमी) आता है। अपने बुरे दिनों के दर्द को पैसों के झाड़ू से समेटने की कशमकश में ज़िंदगी जीना भूल चुके आरव को वक्त के कांटों से घिरी विद्या की फूलों सी खुशबू फिर से जीने की उम्मीद दे जाती है। थोड़ी ऊहापोह के बाद जब दोनों ज़िंदगी की ऊंगली थामने को तैयार होते हैं तो वसूधा का अतीत फिर काला साया बन कर सामने खड़ा हो जाता है। पर्त दर पर्त ऐसे राज़ खुलते हैं, जिनके ज़रिए मोहित सूरी नक्सलवाद, राजनीति और पुलिस तंत्र की कार्यप्रणाली पर्दे पर उतारते हैं। हालात से जूझती वसूधा के ज़रिए मोहित बीच-बीच में नारी के अस्तित्व से जुड़े सवालों को भी छूते हैं और नारी मुक्ती के ख़्याल भर से ही बौखलाए मर्दाना समाज को राजकुमार राव के रूप में दिखाते हैं। परंपरागत मां का बेटी को मर्यादाएं तोड़ कर आज़ाद हो जाने की नसीहत देना और अंत तक आते-आते विद्या का खुद प्रतीकों के बंधन छोड़ कर आगे बढ़ जाने का संकल्प नई दौर की नारी को परिभाषित करते हैं।


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मोहित सूरी की इस प्रेम कहानी में जो नारीवाद की झलक है, वह प्रेम कहानी में एक नया टविस्ट कही जा सकती है। पुरानी कहानियों में प्रेमिका अपने पिता, भाई या पति को नारी पर लदी भारी भरकम परंपराओं का बखान नहीं करती थी,सूरी की प्रेम कहानी में प्रेमिका ही नहीं बल्कि उसकी मां भी नायिका को अपने खो चुके पति के मंगलसुत्र की कैद से निकल कर नई प्रेम कहानी बुनने की सलाह देती है। खोया हुआ परंपरागत पति जब लौट कर उसे वापिस हासिल करने की जब्रदस्ती कोशिश करता है तो वह उसे आज़ाद हो चुकी नारी के आक्रोश से रूबरू करवाती है। पति की बौखालहट में मोहित सूरी मर्द प्रधान समाज की बौखलाट को दिखाता है। इस बौखलाहट की अति को राव बखूबी पर्दे पर उतारता है। इस कशमकश में पिसती, बंटती और फिर आज़ाद होती विद्या बालन नए दौर की नारी का प्रतीक बन कर उभरती है। मोहित सूरी की फिल्म में बस यही एक खूबसूरती है कि उन्होंने घिसी पिटी कहानी को तेज़ी और खूबसूरती से पेश करने की भरपूर कोशिश की है और काफी हद तक सफल हुए हैं। बहुत हद तक हर हिंदी फिल्म की तरह हमारी अधूरी कहानी भी पूरी तरह से प्रिडिक्टेबल है। अगर दर्शक को कुछ बांधे रखता है तो वह विद्या, इमरान हाशमी और राजकुमार राव के एक्सप्रैशन्स और भावनाओं का आदान-प्रदान हैं। फिल्म को रफ्तार देने के लिए डायरेक्टर ने इमरान को पूरी कहानी में लगातार सफर करते हुए दिखाया है। इससे सिनेमेटोग्राफर विष्णू राव को खूबसूरत लोकेशन्स एक्सपलोर करने का काफी मौका मिला है, जिसे उन्होंने बखूबी भुनाया है। लेकिन एक बात समझ में नहीं आई कि इमरान हाशमी कलकत्ता, दुबई,मुंबई, शिमला जहां भी जाते है, हर जगह एयरपोर्ट, एयरपोर्ट स्टाफ और एयरपोर्ट पर लगे हुए फूल एक जैसे ही क्यों होते है? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह कहीं भी जाने के लिए पहले अपने पसंदीदा एयरपोर्ट वाले शहर आते है? सैंकड़ों होटलों का मालिक कुछ भी कर सकता है, भाई। यह भी समझना मुश्किल था कि लेंड माईन लगाने के बावजूद फूलों का पूरा खेत कैसे खिला रहा या इतने घने फूलों के खेत को बिना खोदे लैंडमाइन बिछाए कैसे गए? लैंडमाईन बिछे हुए इलाके के पास चेतावनी भी लिख कर लगाई जाती है, यह भी मैंने पहली बार जाना। फिर भला इन लैंड माईन में जाएगा कौन? कोई पागल प्रेमी ही जाएगा, हैं जी।


फिल्म का संगीत ठीक-ठाक है और कहानी को कंपलीमेंट करता है। कोई गीत ठूंसा हुआ नहीं लगता। संगीत के अलावा प्रेम कहानी में सबसे अहम भूमिका निभाते वाले डॉयलॉग, शगुफता रफीक ने बखूबी लिखे है। प्रेम के फलसफे को फिल्मी अंदाज़ में पेश करते हुए भी उनके संवादों में मुहब्बत की नफासत झलकती है और कई जगह वह कविता हो जाते हैं। इस फिल्म को जो भी रेटिंग मिलेगी, वह उनके डॉयलॉग और तीनों मुख्य कलाकारों की अदाकारी के लिए ही हैं। अगर आप प्रेम कहानियों के डाई हार्ड फैन हैं तो इन सब बातों के लिए एक बार यह फिल्म देखी जा सकती है।

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