दीप जगदीप सिंह*रेटिंग 3/5
अरदास (प्रार्थना), पंजाब के आज की कहानी है, हकीकत को दिखाती भर है, मुश्किलों को छूती हुई नैतिकता का फलसफा पढ़ाती है। आम पंजाबी की सोच और व्यवहार की ख़ामियों को उजागर करती है और उन पर पार पाने का रास्ता गुरबाणी के ज़रिए सुझाती है। एक ही फिल्म में बहुत सारी समस्याओं को समेटने के बावजूद यह कसी हुई पटकथा वाली फिल्म पंजाब की एक सतही और सपाट तस्वीर दिखाती है। लेकिन इस एक पर्त को भी जितनी ईमानदारी से पर्दे पर उतारा गया है उसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
फिल्म का मेजर नैरेटिव पंजाब एक साधारण गांव और इसके आम किरदारों में घटित होता है, जबकि सब-नैरेटिव इसके मुख्य किरदार की अपनी जि़ंदगी का है जो पंजाब के किसी और हिस्से में उसके अतीत में घट चुका है। चर्चित अदाकार एवं गायक से पहली बार निर्देशन की कमान थामने वाले गिप्पी ग्रेवाल ने मेजर नैरेटिव के साथ-साथ सब-नैरेटिव को फ्लैशबैक के टुकड़ों के रूप में खूबसूरती से पिरोया है। अगर दर्शक एक पल के लिए भी पलक झपक लें तो वर्तमान से अतीत और वापिस वर्तमान के ट्रांसीशन का सिरा हाथ से छूट सकता है।
गुरमुख सिंह एक सरकारी स्कूल टीचर है, अपनी मां से नाराज़ वह किसी सुदूर गांव में अपनी पोस्टिंग करवा लेता है। गांव में उसकी मुलाकात डाकिए लाॅटरी (राणा रणबीर), नशेड़ी सप्प (हाॅबी धालीवाल), लाला (करमजीत अनमोल), फरलो मास्टर (हरिंदर भुल्लर), सूबेदार बीएन शर्मा), मैंडी (मैंडी तख़ड़), मिट्ठू (मैंडी का बेटा), किसान सोही (सरदार सोही), उसके संर्घषरत गायक बेटे आसी (एमी विर्क), उसकी प्रेमिका मन्नत (ईशा रिखी), बराड़ (मन्नत का पिता और ड्रग स्मगलर), ज़ोरा (ज़ोरा रंधावा, बराड़ का बेटा और मन्नत का भाई), ज्योति (नन्हीं स्कूल स्टूडेेंट) आदि से होती है। सब की अपनी-अपनी समस्याएं हैं। लाला गांव के हर किरदार की समस्या बाखूबी जानता है और हल भी सुझाता है लेकिन कोई उस पर गौर नहीं करता जबकि जि़ंदादिल और नेक गुरमुख आते ही अपनी सोच से सब को प्रभावित करने लगता है। सब की अपनी-अपनी समस्याएं है, लेकिन वह उसमें इतना उलझे हुए हैं कि रूक कर उनका हल सोचने की इच्छा शक्ति नहीं है उनमें। कोई घमंड से त्रस्त है तो कोई नशे में, कोई दर्द में डूबा है तो कोई मस्ती में, कोई नाउम्मीद है तो कोई किस्मत पर आस टिकाए बैठा है। गुरमुख कजऱ् में डूबे किसान सरदार सोही को आर्थिकता और मेहनत का संबंध समझाता है, स्कूल से गायब रहने वाले फरलो मास्टर को टीचर की जिम्मेदारी याद दिलाता है, उदास ज्योति और मिट्ठू को खुद पर विश्वास रखना सिखाता है, नशेड़ी सप्प को होश में आ ठगी और सच का फर्क दिखाता है, आसी को सपने से लेकिर जि़ंदगी, परिश्रम और प्रेम के सूत्र मिलाता है, स्कूल के बच्चों में नेक नीयति, विश्वास व चरित्र का पाठ पढ़ाता है और आखिर एक-एक कर सब की जीवन का नया रास्ता मिल जाता है। खुद गुरमुख का अतीत उसे अंदर से कचोटता है, जिसमें वह अपनी मां के सामने ना बोल पाने की वजह से अपनी प्यारी पत्नी और बच्चे को कन्या भ्रूण हत्या के लिए मजबूर करने पर खो देता है। वह ना मां को माफ कर पाता है और ना खुद को।
बतौर कहानी और पटकथा लेखक गिप्पी ग्रेवाल ने पंजाबी की सभी प्रमुख समस्याओं को बड़ी सादगी से इन किरदारों के रूप में एक सूत्र में बांध दिया है और सभी किरदारों को इतनी सूक्ष्मता से गढ़ा है कि वह बिल्कुल असली लगते हैं। उनके द्वारा कलाकारों का सटीक चुनाव भी फिल्म की खासियत है। हर कलाकार अपने किरदार में आत्मा तक उतरा है और गिप्पी में उन्हें पर्दे पर उतारते वक्त हर बारीकी का ख़्याल रखा है। पटकथा में किरदारों की कहानी ऐसी गुंथी हुई है कि दर्शक हर पल यही सोचता रहता है कि अब आगे क्या होगा। पहाड़ी क्षेत्र के पैरों में बसे गांव को पर्दे पर उतारने के लिए सिनेमेटोग्राफर और एडिटर बलजीत सिंह दयो का जि़क्र करना बनता है। जितनी तन्मयता से हर कलाकार किरदार को जिया है उन्हें पर्दे पर उतनी ही साफगोई से उतारने में दयो ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। इसके साथ ही गांव के माहौल और पृष्ठभूमि को उन्होंने हर दृश्य में सजीव किया है। एडिटिंग के मामले में भी वह ग्रेवाल के लिए सोने पर सुहागा साबित हुए हैं। दो दृश्यों के मध्य हर ट्रांसिशन में गांव का एरियल शाॅट लगाकार उन्होंने दर्शकों को बार-बार अहसास करवाया है कि दरअसल अरदास गांव की, जड़ों से जुड़ी कहानी है। ग्रेवाल ने जहां खालिस गांव की कहानी को खालिस किरदारों के गिर्द गुरू ग्रंथ साहिब में दर्ज गुरबाणी के आधार पर बुना है, फिल्म के संवाद लेखक राणा रणबीर ने हर दृश्य के अनुकूल गुरबाणी से चुन-चुन कर शब्दों को संवादों में पिरोया है कि गुरबाणी से अंजान दर्शक भी आसानी से जुड़ जाता है। उन्होनें अपने ही किरदार लाॅटरी डाकीए के लिए हाॅलीवुड फिल्म लैटजऱ् टू गाॅड के बच्चे द्वारा भगवान को लिखे जाने वाले खतों के सीक्वेंस को बहुत सृजनात्मकता से पंजाबी में ढाला है।
इतनी सधी हुई फिल्म होने के बावजूद अरदास में ख़ामियों की गुंजायश बची हुई है। किरदारों की इतनी लंबी फौज को मिलवाते और उनकी कहानी को बयां करते हुए फिल्म का फस्र्ट हाफ आधे से ज़्यादा गुज़र जाता है लेकिन कहानी का कोई केंद्रीय क्राईसिस खड़ा नहीं हो पाता। बहुत सारी जगहों पर गुरमुख के गुरबाणी से प्ररित लंबे-लंबे संवाद प्रवचन सरीखे लगने लगते हैं। इंटरवल से पहले आत्महत्या करने जा रहे किसान सोही के साथ संवाद इतना लंबा है कि दृश्य में ससपैंस बनते-बनते हल्का हो जाता है और फिर दोबारा बनता है। दर्शक समझ नहीं पाता है कि वह उसे आत्महत्या से रोक रहा है या उकसा रहा है। फिल्म का पहला रोमैंटिक गाना ज़ब्रदस्ती ठूंसा हुआ लगता है। समझ नहीं आता कि आज की दौर में हर संघर्षरत पंजाबी गायक काॅलेज के दिनों से ही अपने गीत यूटयूब पर डालने लगता है, लेकिन चंडीगढ़ की लेक पर जाकर रोमांस करने वाले और कार देख कर ही पंजाब की मशहूर म्यूजि़क कंपनी के मालिकों को पहचान जाने वाले आसी सोही को यह समझने के लिए एक सरकारी टीचर की आवश्यकता पड़ती है कि वह यूटयूब पर गाना डालकर हिट हो सकता है। यह स्पीड रिकार्डस म्यूजि़क कंपनी वाले बिना स्ट्रग्लर से जान पहचान किए, बिना कोई कंट्रेक्ट साईन किए सीधे यूटयूब पर गाना देख कर उसके लिए लग्ज़री कार खरीद कर ले जाते हैं यह तो मुझे फिल्म देख कर ही पता चला। कांट्रेक्ट की बात वह चाबी देने के बाद ही करते हैं। दिनेश जी, 2-3 कारें और खरीद लीजिए मेरी गांव में भी ऐसे 2-3 सिंगर हैं जो आपका इंतज़ार कर रहे हैं।
पूरी फिल्म में किरदारों की अलग-अलग कहानियां खोलने के चक्कर में पूरी फिल्म चली जाती है और अंत तक आते-आते निर्देशक झटपट समस्याओं को चमत्कारी ढंग से हल करने लग जाता है। कहानी में गुरू नानक देव जी की जिस वाणी का हवाला दिया गया है वह दर्शक को परिश्रम से, सहज से समस्याओं से जूझना सिखाती है ना कि चमत्कार से, लेकिन निर्देशक के पास जब मज़बूत हल निकालने का समय नहीं बचता तो वह पौने दो घंटे में फैलाई समस्याओं का हल पंद्रह मिनट में ही चमत्कारी तरीके से निकाल देता है। केवल कुछ किरदारों, किसान सोही, स्मगलर बराड़, नन्हीं ज्योति, नशेड़ी सप्प के किरदार को सहजता से बदलते दिखाया गया है। यह नहीं बताया गया कि ज्योति का नाना आखिर भैंस पर क्यों घूमता है, क्या सिर्फ उसे हंसाने के लिए यूं ही भैंस पर बिठा दिया गया? फरलो मास्टर को अचानक जिम्मेदारी का अहसास कैसे हुआ? पहले तो वह गुरमुख को देख कर मज़ाक उड़ाता था, अचानक उसे देख कर वह सुधर कैसे गया? लाॅटरी की तो अपनी को समस्या ही नहीं है, वह तो बस ज्योति की समस्या का हल करने के लिए है। गुरमुख की कठोर दिल मां जिसे कभी अपनी बहू की मौत का ग़म तक नहीं हुआ वह अचानक कैसे पिघल जाती है। अंत में मिट्ठू का पापा और मैंडी का पति अचानक से कैसे आ गया, अगर उसने यूं ही लौट आना था और उसके देर करने का कोई कारण भी नहीं था फिर समस्या थी ही कहां? इस तरह कहानी पंजाब की प्रमुख समस्याओं को उसके प्रमुख किरदारों की निजी समस्याओं तक सीमित करके चमत्कारी ढंग से हल करने का सुझाव तो देती है, लेकिन इसके राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कारणों को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर देती है। निर्देशक और लेखक गिप्पी ग्रेवाल भाजी, अध्यात्म मुसीबत में इंसान को ढांढस तो देता है, लेकिन मुश्किलों का हल ज़मीनी हकीकत बदलने से निकलता है। बेहतर होता कि ग्रेवाल इतनी सारी समस्याओं का रायता फैलाने की बजाए प्रमुख समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करते तो वह कुछ अर्थपूर्ण कहानी घढ़ पाते।
गुरप्रीत घुग्गी ने अपनी अदाकारी से अपने दूरदर्शन के दिनों की याद ताज़ा करवा दी। नई पीढ़ी के जिन लोगों ने उनकी संजीदा अदाकारी नहीं देखी उन्हें लगा कि काॅमेडियन घुग्गी अचानक से गंभीर अदाकारी करने लगे हैं। दरअसल लंबे अर्से बाद उन्हें अपने अंदर का असली अदाकार दिखाने का मौका मिला है। गिप्पी ग्रेवाल ने उनके कंधों पर फिल्म का पूरा बोझ लाद कर बड़ा रिस्क लिया, जिसे उन्होंने बखूबी उठाया है। बाकी कलाकारों ने भी अदाकारी के मामले में निर्देशक के भरोसे को कायम रख दर्शकों को निराश नहीं किया। ईशा रिखी और मैंडी तख्ड़ख के पास करने के लिए ज़्यादा कुछ था भी नहीं। एमी विर्क में संभावनाएं नज़र आती हैं, लेकिन अभी उन्हें हाव-भाव पर काफी मेहनत करनी होगी। फिल्म का संगीत औसत दर्जे का है। फिल्म के आर्ट डायरेक्टर के अलावा वेशभूषा के लिए रवनीत कौर ग्रेवाल को गांव की खालिस रूप् में पर्दे पर उतारने के लिए प्रशंसा करनी बनती है।
एक साथ दो फिल्में रिलीज़ ना करने की मिथ भी इस सप्ताह टूटी है। दर्शकों ने अच्छे कंटेंट के आधार पर फिल्मों देखने का अपना फैसला पूरे दमख़म से ज़ाहिर कर दिया है। पंजाबी प्रोडयूसजऱ् को इस पर गौर करना होगा। एक विशुद्ध कहानी आधारित फिल्म, दमदाम अदाकारी व पटकथा एवं ईमानदार कोशिश के लिए अरदास को 3 स्टार देने में कोई हजऱ् नहीं है।
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