लाल सिंह चड्ढा की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इस किरदार को बनाने में काफी मेहनत की गई है। आमिर ख़ान ने न केवल एक सिख की भूमिका निभाई है, बल्कि पहली बार सिख चरित्र को पर्दे खालिस और वास्तविकता के करीब दिखाया गया है। इसके लिए आमिर ख़ान बधाई के पात्र हैं।
दूसरी ख़ूबसूरत बात यह है कि इस सिख चरित्र के माध्यम से सिख धर्म के मूल सिद्धांत ‘सरबत दा भला’ को दिखाया गया है। इस सिद्धांत के तहत सिख किसी में भेदभाव किए बिना सबसे के साथ एक सा बर्ताव करते हैं। फिर सामने चाहे दुश्मन ही क्यों ना हो। यही उन्हें गुरूओं ने सिखाया है। ऐसे ही एक सिख भाई घनईया जी को गुरु गोबिंद सिंह की आशीष प्राप्त थी, जो जंग में सभी को पानी पिलाया करता था। मरहम-पट्टी करता था, बिना यह देखे कि वह किस फौज का सिपाही है। लाल सिंह चड्ढा का किरदार उन्हीं भाई घनाईया जी से प्रेरित हैं।
लाल सिंह चड्ढा के किरदार की एक ख़ासियत यह भी है कि जो फासीवाद और चरमपंथ आमीर ख़ान की फ़िल्म का बहिष्कार करने का ट्रेंड चलाता है, लाल सिंह चड्ढा उसे मलेरिया कह कर पूरी तरह से नकार देने का संदेश देती है। वह इस के किसी भी पक्ष में शामिल ना हो कर पूरी तरह से तटस्थ रहने को प्राथमिकता देता है। वह धर्म के नाम पर लड़ने-मरने की बजाए प्यार करने में भरोसा रखता है।
यही बातें लाल सिंह चड्ढा को दूसरी फिल्मों से अलग बनाती हैं। लेकिन अगला सवाल यह है कि क्या लाल सिंह चड्ढा एक परफेक्ट फिल्म है?
कुछ चीजें चाहकर भी आपके हाथ में नहीं होती हैं। जिस तरह से ऑफिशियल रीमेक होते हुए लाल सिंह चड्ढा की तुलना अनिच्छा से भी फॉरेस्ट गंप से की जाएगी। लाल सिंह चड्ढा की तुलना दंगल, पीके, थ्री इडियट्स, सीक्रेट सुपर स्टार, तारे जमीं पर, लगान से भी की जाएगी। फिर भी पूरी कोशिश रहेगी कि कुछ बिंदु तुलना के दायरे से बाहर निकल कर विचारे जाएं। लेकिन पहले, तुलना के बिंदुओं के माध्यम से कुछ नुक्तों पर बात करते हैं…
लाल सिंह चड्ढा का किरदार
लाल सिंह चड्ढा उतना ही बेगाना लगा है, जितना फारेस्ट गम्प अपना लगा था। बावजूद इस के कि लाल, गम्प की तुलना में ज़्यादा अपना नज़र आता है। लिखावट के मामले में ही किरदार बहुत कमाज़ोर लिखा गया है। जैसे कि अक्सर फ़िल्मों में होता है कि किरदार की लुक पर पूरा ज़ोर लगा दिया गया है, लेकिन किरदार की आत्मा लिखावट से छूट गई है। इस के मायने यह बिल्कुल नहीं हैं कि किरदार का जी कल्पना गम्प की है, लाल वैसा नहीं बना है। बल्कि हुआ यह है कि लाल अंदर से गम्प ही रह गया है।
गम्प से लाल में किरदार का अनुवाद करते हुए अतुल कुलकर्णी ने पूरा का पूरा गम्प उतार लिया है, लेकिन उसका लाल-पन बमुश्किल आधा भी नहीं हो सका है। गम्प का सीधापन, ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, मासूमियत और प्रेम से भरपूर होना लाल में जस का तस अनुवाद किया गया था, लेकिन लाल का जो अपना न्यारापन है, उसकी आंतरिक सुंदरता, गम्प के वजन के नीचे दब गई। इसलिए लाल पूरी फिल्म में बेगाना महसूस होता है।
मां के तौर पर मोना सिंह का रोल इससे कहीं ज्यादा दमदार है। केश काटने के सीन में रोने रोके नहीं रुकता है। माँ के रूप में मोना सिंह का अपने हाथों से पाले हुए बेटे और उनके सिख रूप के प्रति वैराग ही, जो दर्शकों की आँखों से बहता निकलता है। केश कटने के क्या मायने होते हैं, केवल एक सिक्ख और उसकी मां ही समझ सकती है। यह फ़िल्म का सबसे मार्मिक सीन है। लेकिन फिर पूरी फिल्म में शायद ही कोई और ऐसा सीन हो, जहां ऐसा उत्साह या वैराग अपने आप फूट पड़े।
रूपा का किरदार
जेनी से अनुदित हो कर रूपा बने किरदार की बनावट के बारे में बात करें तो, जेनी अंतस न केवल उसके घर के वातावरण से बनता है, बल्कि वह अमेरिकी पॉप कल्चर का भी प्रतिनिधित्व करती है। इस लिए वह अमरीकी सभ्यता के साथ विकसित होती और बदलती है। भले ही उसकी अपनी महत्वाकांक्षाएं उस पर हावी हों, प्रत्येक काल का प्रभाव समानांतर चलते हुए उसे बनाता और तोड़ता है। इसके विपरीत रूपा के पारिवारिक वातावरण का उस पर अमिट मानसिक प्रभाव तो है, लेकिन वह अपने आप को एक ऐसी जिद़ से बांध लेती है, जिसका आसपास के माहौल से कोई संबंध नहीं है। अतुल कुलकर्णी ने जेनी के भारतीय रूप में रूपा की जो कल्पना की है वह डिजाईन के रूप में तो बिल्कुल ठीक है, लेकिन उसकी आत्मा में ना जेनी है और ना ही वह भारतीय तत्वों वाली रूपा बन सकी। यहां पर भारतीय माहौल से मतलब स्टीरियोटाईप आदर्श नारी कतई नहीं है।
यह सच है कि जेनी की ही तरह रूपा अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जीती है और अपनी गल्तियों से सीखती है, यह बड़ी बात है। हार कर मौत का सामना करने के फैसले से एक कदम पीछे हटना उसके साहस का प्रतीक है। उसके बाद जीवन को जी भर कर जी लेना, प्रेम करना, जीवन से लड़कर मरने को प्राथमिकता देना, बहुत कुछ कहता है।
बाला का किरदार
फॉरेस्ट गंप में सबसे मजबूत किरदारों में से एक, बब्बा का रूपांतरण बाला, लाल सिंह चड्ढा के सबसे कमज़ोर किरदारों में से एक है। बब्बा की सेना से रिटायर होने के बाद झींगा मछली का व्यवसाय करने की इच्छा एक मछुआरे पिता के साथ उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि और एक तटीय मछली पकड़ने वाले गांव में उनकी परवरिश के कारण है। इसके अलावा, गम्प उस सांस्कृतिक परिवेश का भी हिस्सा है जहां झींगा मछली का आनंद लिया जाता है। लेकिन मूल कहानी में झींगा मछली का चयन इसलिए किया गया है क्योंकि गरीब अश्वेत लोग इन मछलियों को पकड़ने के लिए तूफानों में अपनी जान जोखिम में डालते हैं ताकि गोरे लोग उनसे बने महंगे व्यंजनों का आनंद पांच सितारा होटलों में ले सकें।
अतुल कुलकर्णी ने काले बब्बा और उस के झींगा का दक्षिण भारतीय बाला और चड्डी-बनियान के रूप में अनुवाद किया है, जिनकी पारंपरिक पोशाक धोती बनियान है। उस के नाना पेशे से चड्डी बनियान के एक्पर्ट दर्जी हैं। इस तरह बाला के किरदार का एक हिस्सा बब्बा के पैतृक व्यवसाय वाली कड़ी से तो जुड़ता है, लेकिन फोरसेट गम्प झींगा मछली के व्यापार के साथ जिस नसली, आर्थिक और वर्ग आधारित भेदभाव पर सवाल उठाती हैं, वह लाल सिंह चड्ढा में, पूरी तरह से गायब हो जाता है। केवल दिखने में यह एक दक्षिण भारतीय काले हिंदू और एक उत्तर भारतीय गोरे/भूरे सिख की दोस्ती तक ही सीमित है।
लाल सिंह चड्ढा के बाला के किरदार में से सांस्कृतिक, राजनीतिक और वर्गीय मुद्दे नदारद हैं। जबकि लाल का चरित्र, जिसे पाकिस्तानी मुहम्मद के हवाले से उभारने की कोशिश की गई है, उसे अगर विस्तार दे कर दक्षिण भारतीय किरदार बाला के साथ जुड़ाव की बहु-आयामी तहों तक फैलाया जाता तो भारतीय सामाजिक संरचना में मौजूद दक्षिण बनाम उत्तर भारतीय टकराव की रूढ़ियों पर गहरी चोट हो सकती थी। फॉरेस्ट गम्प में बब्बा की मौजूदगी अमेरीकी नसलवाद पर यही प्रहार तो करती है।
झींगा मछली का कच्छे-बनियान में अनुवाद थोड़ा अटपटा लगा। जिस तरह पूरे अमेरिका में झींगा की यूनिवर्सल अपील है, अगर अतुल कुलकर्णी ने इसे डोसा-सांबर बनाया होता, तो यह कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक जैसा स्वाद देता। इसके विपरीत, भले ही पूरे भारत ने मशीनी युग में ‘रूपा’ की चड्डी बनियान पहनना शुरू कर दिया हो, फिर भी इस मामले में हर क्षेत्र और संस्कृति में अपनी-अपनी प्राथमिकताएं हैं, जिसकी तुलना में सांभर-डोसा ज़्यादा यूनिवर्सल हो गया है।
मोहम्मद का किरदार
लाल सिंह चड्ढा का सबसे अटपटा किरदार मुहम्मद है। फॉरेस्ट गंप मूवी में, लेफ्टिनेंट डैन टेलर फॉरेस्ट और बब्बा का कमांडर हैं। वह एक अमेरिकी सैन्य परिवार से आता है जिसके परदादाओं ने बड़े युद्धों में अमेरिका के लिए बलिदान दिया है। उसका एकमात्र उद्देश्य युद्ध में शहीद होकर अपने परिवार की परंपरा को कायम रखना है। वियतनाम युद्ध में उसे अपना सपना सच होता दिख रहा है, लेकिन जब गंप अपनी जान जोखिम में डाल कर उसे बचा लेता है, तो उसका सपना टूट जाता है। वह चिल्लाता है कि गंप उसे मरने के लिए रणभूमि में छोड़ दे।
मूल फिल्म, इस किरदार के माध्यम से, अपने सैनिकों को अपने युद्धों में मरने के लिए मजबूर करके अमेरीकी फौजियों को हीरो बनाने की स्थिति पर व्यंग्य करती है। इसके विपरीत, लाल सिंह चड्ढा में यह चरित्र मुहम्मद बन गया है, जो कथित तौर पर “दुश्मन देश का फिदायीन” है। उसे धर्म के नाम पर उकसाया गया और कारगिल में शहादत के लिए धकेल दिया गया।
लाल सिंह चड्ढा कूल्हों पर गोली खाकर उसे बचा लेता है। हालांकि इस किरदार के जरिए फिल्मकार भारत-पाकिस्तान आपसी भाईचारे का बेहतरीन संदेश देता है। साथ ही 72 हूरों का लालच देकर हिंसा और दुश्मनी के लिए मज़हब का इस्तेमाल करने वालों का भंडाफोड़ करता है। इस के साथ ही वह लाल सिंह चड़ढा से प्रभावित हो कर एक फिदायीन से एक समाज सेवी बनने की कहानी दिखाता है।
अगर कहानी केे लिहाज़ से बात की जाए तो मोहम्मद एक किरदार महत्वपूर्ण है। लेकिन तकनीकी तौर से यह किरदार कहानी में लॉजिक को दरकिनार कर देता है, जिसकी चर्चा आगे की गई है।
कमज़ोर पटकथा
अब अगर कहानी के ताने-बाने की बात करें तो फॉरेस्ट गंप की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि उस दौर की राजनीति और समाज को दर्शाने वाली सच्ची घटनाएं और गंप के जीवन की कहानी आपस में इस तरह गुंथी हुई हैं, जिस तरह मकड़ी अपना जाला बनाते हुए एक गांठ तक नहीं लगने देती। रेशम का कीड़ा इतना महीन बुनता है कि बाल जितनी जगह भी अपने बाहर निकलने के लिए नहीं रखता। जबकि फ़िल्म लाल सिंह चड्ढा जिन सच्ची घटनाओं का वर्णन करती है, जिनका भारतीय और विशेष रूप से पंजाब के मानस पर गहरा प्रभाव पड़ता है, उस में लाल का किरदार तटस्थ खड़े दर्शक से ज़्यादा कुछ नहीं है।
वह 1984 के दिल्ली नरसंहार और फिर कारगिल युद्ध में सीधे तौर पर शामिल है। ये घटनाएँ उसे दृश्य और मानसिक स्तर पर भी प्रभावित करती हैं। फिर भी वह इन घटनाओं का स्वाभाविक हिस्सा नहीं लगता है। बल्कि लगता है कि इन में उसे फिट किया गया है। शायद लेखक के पास कहानी की लंबाई को काबू में रखने का समय नहीं था या दबाव बहुत था या फिर उन घटनाओं में लाल को गहराई से जोड़ना उन से बस से बाहर हो गया था। इस सवाल का जवाब शायद कभी न मिले, लेकिन उन्होंने रथ यात्रा के दृश्य में लाल और रूपा को सीधे भीड़ में दर्शक की तरह खड़ा कर अपनी मजबूरी जाहिर ज़रूर कर दी। यह सेंसर से पास होने का डर या सरकार का डर भी हो सकता है।
अमेरीका फॉरेस्ट गंप में सिर्फ एक लोकेशन नहीं था बल्कि एक किरदार की भूमिका निभा रहा था। जबकि लाल सिंह चड्ढा की ज़्यादातर लोकेशन आर्ट वर्क से ज्यादा कुछ नहीं हैं। दाढ़ी रखने और पगड़ी बांधने में बहुत मेहनत की गई है, लेकिन यह भी अपने आप में एक श्रृंगार बनकर रह गया है। यहां तक कि घर में पहना जाने वाला लाल सिंह चड्ढा का कुर्ता-पायजामा भी शादियों में पहने जाने वाले कुर्ते से ज्यादा फैंसी है।
सिख संस्कृति में शादी के फेरों को लावां कहा जाता है। जो अग्नि की बजाए श्री गुरु ग्रंथ साहिब के गिर्द ली जाती हैं। लावां लेते समय इस मौके के लिए गुरु साहिब द्वारा लिखी गई विशेष बाणी जिसे लावां का पाठ कहा जाता है, वह किया जाता है। लाल और रूपा के लावां लेने वाले सीन में दूल्हे की पगड़ी पर लगी कलगी को धार्मिक मर्यादा के अनुसार उतारा गया है, लड़के का पल्ला लड़की को थमाया गया है, लेकिन उसी समय बैकग्राउंड में बजता गाना ऐसी की तैसी कर देता है। सीन में कीर्तन करने वाले रागी सिंह और पाठ करने वाले ग्रंथी सिंह भी मौजूद हैं, लेकिन लावां के पाठ/कीर्तन को म्यूट कर बैकग्राउंड में रोमेंटिक गीत चला दिया गया है। अगर उन्होंने लावा का पाठ/कीर्तन सुनाया होता, तो दृश्य और अधिक ऑथेंटिक बनता। फिल्मी टच देने के लिए लावां के गायन के लिए धुनें और संगीत भले ही फ़िल्मी प्रयोग किया जा सकता था। वैसे गीत के बोल और संगीत दोनों अवसर के अनुसार ठीक हैं, लेकिन अथेंटिक नहीं लगते।
तर्क का कोई तर्क नहीं!
देखा जाए तो आमिर ख़ान की पिछली फिल्मों में भले ही सिनेमाई आज़ादी ली गई हो, लेकिन फिर भी काफी हद तक लॉजिक को पकड़ कर रखा गया है। लेकिन लाल सिंह चड्ढा को सरबत दा भला करने वाला दिखाने के चक्कर युद्ध में गल्ती से भारत आ गए मोहम्मद को (फौजी अस्पताल से लेकर, मुंबई और पठानकोट जैसे संवेदनशील स्थानों तक) घूमते हुए दिखाया गया है। फिर वह आसानी से वापस पाकिस्तान चला जाता है। इस कर अर्थ यह कतई नहीं है कि उसे पाकिस्तानी की मदद नहीं करनी चाहिए थी। लेकिन इसे थोड़ा लॉजिक्ल बनाया जा सकता था।
दूसरी तरफ मुंबई निवासी अंडरवर्ल्ड डॉन आखिरकार पुलिस की पकड़ में आ जाता है। डॉन के साथ रहने वाली रूपा को पकड़ने के लिए मुंबई पुलिस पठानकोट के एक छोटे से गांव आती है। रूपा को 6 महीने की कैद भी होती है। लेकिन मोहम्मद को आश्रय और रोजगार देने वाला लाल सिंह चड्ढा आराम से सोता रहता हैं और पुलिस उस की दहलीज़ पर आकर रूपा को लेकर चली जाती है। देखा जाए तो कथित राष्ट्रवाद के उन्माद से मुक्त हो कर पहली बार भारतीय सिनेमा की पुलिस ने एक अच्छा काम किया है।
लेकिन झूठे यूएपीए के केसों के दौर में इतनी सिनेमाई आज़ादी न केवल झकझोरने वाली है, बल्कि परेशान करने वाली भी है। सबसे ज़्यादा परेशान करने वाली बात आमिर ख़ान का पंजाबी लहज़ा है। अच्छा होता अगर हिंदी फिल्म में हिंदी किरदार, भले ही वह सिख ही क्यों न हो, से हिंदी में ही डायलॉग बुलवा लिए जाते। दिल्ली, मुंबई, यूपी और राजस्थान के सिख भी अच्छी हिंदी बोलते हैं। उनकी पंजाबी भी बुरी नहीं है, लाल सिंह चड्ढा जितनी बुरी तो बिल्कुल नहीं है।
स्पीड ब्रेकर
जैसा कि ऊपर फॉरेस्ट गंप के हवाले से बताया गया है, लाल सिंह चड्ढा की कहानी उतनी गुंथी हुई नहीं है। इसे टुकड़ों में लिखा, फिल्माया और निभाया गया। इस वजह से इसके कुछ टुकड़े ही प्रभावित करते हैं, लेकिन समग्र रूप से फिल्म गहरी छाप नहीं छोड़ती है। नतीजतन फिल्म शुरू से अंत तक आपको बांधे रखने में कामयाब नहीं हो पाती है। पहले वह दर्शकों को अपनी ओर बुलाती है, उन्हें उत्साहित करती है, फिर उन्हें अपने फोन आदि का उपयोग करने के लिए थोड़ा समय देती है और फिर अपने अगले टुकड़े पर जाती है। अतुल कुलकर्णी की कमज़ोर पटकथा को निर्देशक अद्वैत चंदन संभालते हैं, लेकिन राजकुमार हिरानी जैसे निर्देशक की कमी खलती है।
पर्द के पीछे
सत्यजीत पांडे की सिनेमैटोग्राफी निढाल पटकथा को पर्दे पर उठाकर आंखों को सुकून देती है। टुकड़ों को जोड़ने के लिए हेमंत सरकार का संपादन पूरी तरह सटीक है। लेकिन स्क्रीनप्ले ग्राफ के उतार-चढ़ाव को संतुलित करना उनके बस में नहीं था। तनुज टीकू का बैकग्राउंड स्कोर डगमगाती कहानी को मज़बूत कंधा देने का काम करता है।
आखिरी बात
कुल मिलाकर फिल्म लाल सिंह चड्ढा अपने मुख्य किरदार लाल की संवेदनशीलता के कारण एक बार देखने लायक है। फिल्म का यह संदेश कि जीवन जीने के लिए है, दौड़ने, भागने और काटने के लिए नहीं, इस फ़िल्म को सहेज कर रखने लायक बनाता है। साथ ही सीधा बंदा लल्लू, पागल और बेकार होता है, फिल्म हमारी इस मानसिकता पर तमाचा मारती हुई बताती है कि देर से समझने वाले ही जिंदगी में दूर तक जाते हैं, सच्चे, ईमानदार और दिल से प्यार करने वाले होते हैं। अगर आपके लिए फिल्म देखना एक सच्चे इंसान की सच्चाई का सामना करने का एक ज़रिया है तो यह फिल्म आपको ज़रूर देखनी चाहिए।
वैसे भी जिस दौर में फ़िल्म का बायकॉट धर्मान्धता को आधार बना कर किया जाए और जो फ़िल्म इस धर्मान्धता की वजह से होते दंगों को मलेरिया बताए, वह फ़िल्म बोलने और अपनी बात कहने की आज़ादी को बचाए रखने के लिए देखी ही जानी चाहिए। इस के लिए कमियो को नज़रअंदाज़ भी किया जा सकता है।
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