दीप जगदीप सिंह/रेटिंग **
रेबिलियस फ्लाॅर रजनीश ओशो के राजा से ओशो बनने के सफर पर आधारित फिल्म है। ओशो के भक्तों के प्रयासों से निर्मित इस फीचर फिल्म में ओशो के बचपन से लेकर उनके निवार्ण की प्राप्ती तक की गाथा दिखाई है, जो बहुत हद तक दस्तावेज़ी-ड्रामा फिल्म बन कर रह जाती है। अगर कहें कि यह राजा के बचपन, यौवन, जिज्ञासाओं और परिवेश के मनोहर दृश्यों का एक स्लाईड शो है तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी।
फिल्म की कहानी 1938 से लेकर 1952 के मध्य प्रदेश के उस गांव के इर्द-गिर्द घुमती है जहां राजा अपने नाना-नानी के पास रहता है। फिल्म की शुरूआत में ही उसे जिज्ञासु दिखाया गया है और शुरूआती दृश्यों में ही वह घर पर आए पंडित को भगवान, स्वर्ग और नर्क के बारे में तर्कपूर्ण सवाल पूछ कर कोपित कर देता है। पंडित श्राप देते हुए घर से भाग खड़ा होता है तो नाना का संवाद ‘जो बात में पूरी उम्र नहीं समझ सका, उसे राजा ने इतनी छोटी उम्र में समझ लिया’ राजा के ओशो बनने के सफर की शुरूआत पर पहली मोहर लगा देता है।
उसके बाद स्कूल, लाईब्रेरी, नदी, गांव, जंगल, समंदर और काॅलेज का सफर करते हुए राजा की जिज्ञासाएं और सवाल बढ़ते चले जाते हैं, लेकिन जवाब कम होते-होते खत्म हो जाते हैं। अंतत वह बाहर की बजाए अंदर से जवाब ढूंढने की यात्रा शुरू करता है और वट वृक्ष के नीचे की गई साधना से बुद्ध ही की तरह निवार्ण प्राप्त करता है। अपनी नानी को पहली दीक्षा देकर वह राजा से ओशो होने के अंतिम पड़ाव पर पहुंचता है और फिर ओशो के रूप में ज्ञान और विचार की रौशनी फैलाने के नए सफर पर निकल जाता है। गंभीर, अध्यात्मिक और बौद्धिक रस्साकशी के बीचों-बीच निर्देशक और लेखक ने बच्चे और युवा राजा के कुछ नटखट पलों को भी पर्दे पर उतारा है, जिससे भारी-भरकम कदमों से चींटी की चाल चलता फिल्म का नैरेटिव दर्शकों को गुदगुदाते हुए जगाता भी है।
दस्तावेज़ी ड्रामा होते भी फिल्म में नाटकीयता लेश मात्र ही है। मुझे लगता है निर्देशक कृष्ण हुड्डा ने दृश्यों में ख़ूबसूरती और अध्यात्मिकता भरने की तो भरपूर कोशिश की है, लेकिन कागज़ पर लिखी सक्रिप्ट को पर्दे पर उतारने का कोई प्रयास नहीं किया है। इसी वजह से यह पूरी तरह से फिल्म ना बन कर ओशो के जीवन के शुरूआती पलों का दस्तावेज भर बन कर रह जाती है। वैसे सिनेमेटोग्राफर नीरज तिवारी ने प्राकृति, नदी, सागर और वनस्पति को बहुत ही सलीके और एस्थेटिक्स के साथ पर्दे पर बैकड्राॅप में उतारा है। फोरग्राउंड में मास्टर प्रिंस शाह ने जिज्ञासू, तेज़ तर्रार और मासूम राजा का किरदार जीवंत कर दिया है। युवा राजा का किरदार निभाते हुए शशांक शेखर भी यौवन, प्रेम, मिलाप और बिछोह के रास्ते पर चलते हुए ज्ञान की पगडंडी पकड़ते हुए सहज नज़र आते हैं। बांसुरी वादन में पारंगत होने के बाद मस्तो बाबा के कहने पर राजा द्वारा बांसुरी को त्यागने वाला दृश्य शशांक और मंत्रा मुग्ध की कैमिस्ट्री और फिल्म को शिखर पर ले जाता है। यही दृश्य ओशो के पदार्थ या ज्ञान को पूरी तरह से प्राप्त कर लेने के बाद उसके त्याग के प्रवचनों को सत्यापित करता है। मग्गा बाबा, पग्गल बाबा और मस्तो बाबा के अलग-अलग किरदारों को मंत्रा मुग्ध ने बखूबी संभाला है, लेकिन लगता है निदेशक ने मस्तो बाबा के रूप में उन्हें इतना खुला छोड़ दिया है कि वह अतिरेकता से बच नहीं पाए। कास्टच्यूम डिज़ाईनर और कला निदेशक ने अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभाया है और राजा के उस दौर को प्रमाणिकता देने में सफल रहे है। निर्देशक ने पूरे होशो-हवास में राजा के ओशो बन जाने के बाद के आखरी दो दृश्यों में चेहरा दिखाने से परहेज़ किया है। कहीं-कहीं निर्देशक ने सिनेमेटिक फ्रीडम भी खुले दिल से ली है, जिससे बचा जा सकता था। अगर सक्रीन प्ले थोड़ा कसा हुआ और चुस्त चाल होता तो यह फिल्म की मूल भावना से छेड़ छाड़ किए बिना इसे ज़्यादा रौचक बना सकता था।
अगर आप ओशो के पूणा आश्रम के अंदर की जि़ंदगी और उनके विवादित जीवन की झलक देखने की उम्मीद लेकर फिल्म देखने जाएंगे तो नाउम्मीद होकर ही लौटेंगे। इसके अलावा इसमें ओशो की सोच और विचारों की भी वह जानी-पहचानी झलक देखने को नहीं मिलेगी, जिन्हें ओशो के भक्त, श्रोता और पाठक बड़ी उत्सुकता से लेते हैं। दरअसल यह फिल्म राजा की जिज्ञासाओं की कहानी कहती है, ओशों के विचारों की नहीं। फिर भी अगर आप ओशो के ओशो बनने के सफर की एक झलक देखना चाहते हैं तो एक बार यह फिल्म देख सकते हैं। अगर फिल्म को ओशो की नहीं एक अनजाने जिज्ञासू के यात्रा के तौर पर देखेंगे तो उत्सुकता बनी रहेगी। जिस दौर में बेहतरीन बायोपिक बन रहीं है, ऐसे में एक विहंग्म और नाटकीय जीवन से भरपूर व्यक्ति की मध्यम दर्जे की बायपिक निराश करती है। इस फिल्म से कहीं ज़्यादा नाटकीयता ओशो के असल जीवन में निहित है। मास्टर प्रिंस शाह की मासूमियत और मंत्रा के मग्गा बाबा के किरदार के लिए इस फिल्म के दो स्टार तो बनते ही हैं।
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