दीप जगदीप सिंह
रेटिंग 1.5/5
ज़ोरावर एक ओर ऐसी पंजाबी फिल्म है जो सितारे की शोहरत की भेंट चढ़ गई है, इस सितारे का नाम है यो यो हनी सिंह। दिलजीत की फिल्म अंबरसरिया के बाद 2016 में रिलीज़ हुई यह दूसरी फिल्म है जिसे पूरी तरह से पकाया नहीं गया। इस वजह साल की जिस फिल्म का सबसे ज़्यादा बेसब्री से इंतज़ार हो रहा था वह एक हंसी का बहाना बन के रह गई है।
ज़ोरावर सिंह (यो यो हनी सिंह) सीक्रेट आर्मी फोर्स का धुआंधर फौजी है जो अकेला ही ख़तरनाक मिशन पर चला जाता है, यहां तक कि वह अपने अफसरों तक की प्रवाह नहीं करता। वह पंजाब के किसी गांव में अपनी मां (अचिंत कौर) के साथ रहता है और एक दिन गांव आने पर उसे पहली ही मुलाकात में जसलीन (पारूल गुलाटी) से प्यार हो जाता है। इससे पहले के दोनों के प्यार की गाड़ी पटरी पर सरपट दौड़ पाती एक दिन अचानक शीतल को अपने खोए हुए पति और ज़ोरावर के असली पिता, समरजीत (मुकुल देव) जिसे अब तक मरा हुआ समझा जा रहा था, के पुराने ख़त मिलते हैं। इस बार ज़ोरावर अपने निजी मिशन पर साऊथ अफ्रीका के डर्बन शहर जाता है, जहां पर वह अपने पिता को ढूंढने के लिए पुलिस अफसर तेजपाल (पवन राज मल्होत्रा) की मदद लेता है। क्या वह अपने खोए हुए पिता को ढूंढ पाएगा? सबसे बड़ा सवाल क्या वह जि़ंदा अपनी मां और प्रेमिका के पास वापिस जा सकेग? यो यो हनी सिंह बने ज़ोरावर के सफर की कहानी का केंद्र यह सवाल है।

सागर पंडेया ने पंजाबी सिनेमा के लिहाज से एक ताज़ा कहानी लिखी जो तीन पीढि़यों के आर-पार उलझे रिश्तों के सिरों के गिर्द बुनी गई है। सभी घर वापस लौट जाना चाहते हैं लेकिन हालात उन्हें उल्टी तरफ धकेल देते हैं। पिता-पुत्री और पिता-पुत्र के रिश्तों पर आधारित यह अब तक की सबसे सफलत्म भावुक फिल्म हो सकती थी अगर इस कहानी को सधे हुए हाथों में थमाया जाता लेकिन निर्देशक विनील मार्कन भावनाओं को केंद्र में रखने में बुरी तरह असफल रहे और ढीले-ढाले एक्शन, बेसिर-पैर की काॅमेडी और ठंडे से रोमांस में उलझे रहे। इस तरह कोई भी रस सहजता से पर्दे पर उतर ही नहीं सका और फिल्म नीरस और बोझिल होती गई। हल्के स्तर के ग्राफिक्स ने फिल्म के कमज़ोर एक्शन दृश्यों का भट्टा और ज़्यादा बिठा दिया। फिल्म का गीत-संगीत पहले ही युवाओं पर छाया हुआ है, लेकिन पटकथा को बोझिल बनाने के सिवा यह फिल्म में किसी काम नहीं आता। बैकग्राउंड स्कोर आवश्यक रोमांच तो पैदा करता है लेकिन ढिली सक्रिप्ट को उठाने में सफल नहीं हो पाता। हेमंत बहल ने देसी अंदाज़ में कुछ पंजाबी संवाद लिखे हैं, लेकिन कलाकारों की टूटी-फूटी पंजाबी इनका सारा मज़ा किरकिरा कर देती है। मोहन्ना कृष्णा की सिनेमेटोग्राफी फिल्म को बड़ा कैन्वस देती है। उनके एरियल शाॅट दिल को लुभाते हैं।
पहले बाॅलीवुड से लेकर पंजाबी सिनेमा तक में कहा जाता था कि फिल्म हिट करवानी है तो हनी सिंह को (संगीतकार के तौर) पर लाया जाए, लेकिन अब लगता है कि कहा जाएगा कि अगर फिल्म का डब्बा गोल करना है तो हनी सिंह को (हीरो) ले आओ। ज़ोरावर नामक फौजी और पिता प्रेम के अभाव में पले बेटे का किरदार निभाने में हनी सिंह पूरी तरह असफल रहे हैं। उनके शारीरिक हाव-भाव किसी बिगड़ैल युवक और संवाद अदायगी बच्चों जैसी है। दम दिखाने वाले दृश्यों में वह सुस्त और नशे में लगते हैं। मुकुल देव ने एक बार फिर अंदर से टूटे हुए भावुक पिता और बाहर से दमदार माफिया किंग का किरदार अच्छे से जी लिया है। पवन राज मल्होत्रा अडि़यल पुलिस अफसर और चालबाज़ वर्दीधारी के किरदार में जमे हैं। पारूल गुलाटी की ख़ूबसूरती तो मन मोहती है लेकिन उनका सपाट चेहरा प्रभावित नहीं करता। ज़ोया के किरदार में वीजे बानी जे बहुत हाॅट और प्रभावशाली लगी हैं और पूरी फिल्म में एक दबंग एटिट्यूड वाले हाव-भाव उनके चेहरे पर रहे हैं। इन सब की टूटी-फूटी पंजाबी ने सब गुड़-गोबर कर दिया है, डायलाॅग का मज़ा कम और हंसी ज़्यादा आती है। मां का किरदार अचिंत कौर ने बखूबी निभाया है लेकिन हनी सिंह की उम्र के युवक की मां के किरदार के लिए उनका चुनाव मुझे अजीब लगा, वह उनकी बड़ी बहन जैसी दिखती हैं। कई जगहों पर उन्होंने पारूल, बानी, हनी सिंह, मुकुल देव और पवन मल्होत्रा से ज़्यादा अच्छी पंजाबी बोली है। बता दें कि इन सभी की पृष्ठीभूमि पंजाबी है।
आओ अब फिल्म के कुछ झोल देख लेते हैं। समझ नहीं आया कि अगर दूसरे पति ने शीतल की पूरी सच्चाई जान कर उसे और उसके बेटे को अपना लिया था तो ज़ोरावर को उसने 25 साल तक सच्चाई क्यों नहीं बताई? एक धुआंधार फौजी अफसर अपने खोए हुए पिता के केस के बारे में कोई सुराग नहीं निकाल सका, लेकिन एक आम अफ्रीकी महिला ने कैसे पुलिस का रिकार्ड हैक कर लिया? अफ्रीकी महिला को हनी सिंह की पंजाबी तो समझ में नही आती है लेकिन अपने पंजाबी पति दीदार गिल की पंजाबी समझ आती है, भाई दीदार क्या अफ्रीकी पंजाबी बोल रहा था? मुकुल देव को हनी सिंह के ज़ोरावर वाले किरदार के बारे में कुछ नहीं पता, ना ही उसके कामकाज के बारे में, बस उसके लिए तो वह उसके गैंग का मैंबर ज़ोरो है, लेकिन गोली लगने के बाद आराम कर रहे मुकुल उसे इस दृश्य में ज़ोरावर कह कर बुलाते हैं। निर्देशक साहब कंटीन्यूटी पर तो गौर कर लेते। और भगवान का वास्ता है यह तो बता दीजिए अगर ख़त लिख कर समरजीत अपनी पत्नी शीतल के आने का इंतज़ार कर रहा था तो उसने अपना नाम क्यों बदल लिया? संग्राम और शीतल की उस फोन काॅल की क्या ज़रूरत थी अगर इसने कहानी में कोई नहीं उलझन पैदा नहीं करनी थी या पुरानी उलझन सुलझनी नहीं थी? सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि पंजाब का भगौड़ा कातिल तेजपाल अफ्रीका आ कर पुलिस अफसर कैसे बन गया? अफ्रीकी पुलिस की नौकरी करते हुए इतने साल वह अपनी डयूटी का सारा समय सिर्फ निजी बदला लेने की योजना बनाने में कैसे लगाता रहा? क्या अफ्रीकी पुलिस ने उसे इसी काम के लिए भर्ती किया था? अगर ज़ोया भी उसी की भेजी हुई मुखबिर थी तो ज़ोरावर को मुखबिर बना कर भेजने की बात उससे छुपाने की क्या ज़रूरत थी? कहानी के बारे में और भी कई सवाल हैं, जिन्हें दर्शक पूछेंगे नहीं, क्योंकि फिल्म देखने ही नहीं जा रहे हैं। पहले दिन सुबह 11 बजे के शो में लुधियाना के मल्टीप्लैक्स के पूरे हाॅल में मेरे सिवा कुल चार-छह जोड़े ही कोनों में दुबके हुए थे। यानि इस फिल्म को हनी सिंह की दमदार वापसी नहीं कहा जा सकता।
ऐसे विषय जो पंजाबी सिनेमा में अभी तक अनछुआ है उस पर फिल्म बनाने की कोशिश करने के लिए ज़ोरावर को डेढ़ स्टार दिए जा सकते हैं।
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