Film Review | लव पंजाब (पंजाबी फि‍ल्म)

 रिश्तों को जोड़ती विरासत की जड़ें

दीप जगदीप सिंह | रेटिंग-3/5

लव पंजाब रिश्तों और जड़ों की कहानी है। लव पंजाब बताती है कि जब-जब रिश्तों मे दरारें आतीं है तब-तब हमें अपनी जड़ों की याद आती है। लव पंजाब में रिश्ते हैं, दरारें हैं, मोहब्बत है, ममता है, बाप और बच्चे का लगाव है, टीस है और जब टीस टूटने के कगार पर पहुंच जाती है तो मुख्य किरदार जड़ों की ओर लौटते हैं। जहां पर गांव है, अपनापन है, तकरार है और तकरार में ही प्यार है।
पंजाब के गांव से आया परगट (अमरिंदर गिल) कैनेडा में पली-बढ़ी जैसिका (सरगुन मेहता) से प्यार करता है और पक्के होने के लिए उससे शादी भी कर लेता है। विदेश में जि़ंदगी की भागदौड़ में प्यार जल्दी ही कहीं खो कर रह जाता है और एक दूसरे से जुड़ी उम्मीदें टूटने लगती हैं। जैसिका अपनी टूटी हुई उम्मीदों, अपनी मां के दबाव और सांस्कृतिक द्वंद की वजह से इस रिश्ते से तलाक लेने का फैसला करती है। इस टकराव का असर उनके स्कूल जाते बच्चे पर होने लगता है, जो पहले से अपनी पहचान की तलाश में झूल रहा है। कैनेडा में जन्मा पंजाबी मूल का मनवीर (मनवीर जौहल) स्कूल में सहपाठियों से नस्लवाद का शिकार होता है। अब जब उसे अहसास हो रहा है कि वह अपने बाप को खो देगा और उसका अपना देश भी कोई नहीं है तो वह अपनी जड़ों को तलाशना चाहता है। मां-बाप के टकराव में वह अवसादग्रस्त हो जाता है और डाॅक्टर की सलाह पर ना चाहते हुए भी दोनों बच्चे के लिए परगट के गांव पंजाब चले जाते हैं। पंजाब जो अपनी सामाजिक प्रस्थितियों की वजह से खुद टुटने के कगार पर है, उसे गांव का सरपंच और मनवीर का दादा अपने पोते के लिए खुशहाली की एक नकली रंगत देता है। यहीं पर निर्देशक ने दादा (योगराज सिंह) और दादी (निर्मल ऋषि) की दशकों लंबी और मीठी तकरार को युवा परगट और जैसिका की तकरार के सामांनांतर खड़ा किया है। उसके आगे जो भी होता है वह पूरी तरह से प्रेडिक्टेबल है। कहानी एक सुखद अंत पर समाप्त होती है। 
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इस सप्ताह रिलीज़ हुई दोनों बड़ी पंजाबी फिल्मों का केंद्रीय थीम जड़ों की ओर लौटना है। इससे पहले पूरी तरह से गांव के अंदर घटित होती हिट फिल्म अगंरेज लिख चुके अंबरदीप इस बार विदेश और पंजाब के गांव का फ्यूज़न करते हैं। लेकिन लव पंजाब के रूप में वह एक लकीरी कहानी ही लिख पाते हैं। कहानी एक रेखा की तरह बिल्कुल सीधी बिना किसी उतार-चढ़ाव के चलती जाती है, बीच-बीच में कामेडी और गानों का तड़का है जो पति-पत्नि और बच्चे के भावनात्मक द्वंद से पैदा हुई तरलता को कभी हंसी ठहाकों में बदलते हैं तो कभी रूमानियत का अहसास दे जाते हैं। इस तरह कहानी पूरी तरह एक शांत नदी की तरह एक लैय में बहती हुई जाने-पहचाने अंत पर जाकर मिल जाती है। लेकिन शायद लेखक और निर्देशक भूल गया कि सामानांतर तुलना केवल एकसमान धरातल पर ही हो सकती है। तीन-चार दशक पहले के रिश्तों और नए दौर के रिश्तों के हालात में ज़मीन आसमान का अंतर आ चुका है। पंजाब के सीमित साधनों और अपने घर में रिश्तों को सहेजने और तकरार में भी स्नेह बने रहने का माहौल यहां की आबोहवा में मौजूद है। आज के दौर में रिश्ते जब तरक्की के लिए बड़े शहरों या विकसित मुल्कों में जाते हैं तो वहां पर सरवाईवल का ही एक ऐसा दबाव रहता है, जिसमें एक दूसरे से उम्मीदे आसमान छूती हैं और उन्हें पूरी कर पाने की संभावनाएं ज़मीन से सिर नहीं उठा पाती। ऐसे में रिश्ते में जिस संतुलन को विरासत के ज़रिए लेखक और निर्देशक दिखाने चाह रहे थे वह मनोरंजन और स्टिरियोटाइप की दौड़ में कहीं पीछे छूट जाता है। अंततः मर्द ऐसे होते हैं और औरतें ऐसा करती हैं कि पूर्व स्थापित स्टिरियोटाइप को पनुःस्थापित कर कहानी खत्म हो जाती है। दर्शक मनोरंजित तो होता है, लेकिन फिल्म उसे घर लेकर जाने के लिए कुछ नहीं देती।

निर्देशक राजीव ढींगरा कागज़ पर लिखी कहानी को बस हूबहू पर्दे पर परोस देने तक का काम करते हैं, बाकी काम अदाकारों और आर्ट डायरेक्टर शबाना खानम ने संभाल रखा है। कैनेडा के विहंगम और पंजाब की ज़मीनी लोकेशंनस को सिनेमेटोग्राफर नवनीत मिस्र ने बखूबी पर्दे पर उतारा है। अंबरदीप के डाॅयलाॅग किरदारों की मानसिकता को हूबहू पेश करते हैं। अंगरेज़ फिल्म में अमरिंदर गिल गेजे के किरदार में काफी हद तक उतरे थे, लेकिन लव पंजाब में वह परगट कम और अमरिंदर ज़्यादा लगते हैं। सरगुन मेहता अपनी दिलकश ख़ूबसूरती, बोलती आंखों और मासूमियत से एक ठगी हुई प्रेमिका लगती हैं। वह हर दृश्य में अमरिंदर गिल को कंप्लीमेंट करते हुए, उनकी असहजता को ढक लेती हैं। फिल्म का असली हीरो मनवीर जौहल है जो कहीं भी अहसास नहीं होने देता कि वह किसी फिल्मी बच्चे का रोल कर रहा है। उसका बुझा हुआ चेहरा और उसकी आंखों उसके अवसादग्रस्त मन को पर्दे पर उतारते हैं। योगराज सिंह और निर्मल ऋषि की कैमिस्ट्री का मुकाबला आज की पीढ़ी का कोई अदाकार शायद ही कर पाए। 

अदाकारी के मामले में अंबरदीप को दूसरे फिल्म लेखक नरेश कथूरिया की नकल करने से बचते हुए अपना ध्यान लिखने पर केंद्रित करना चाहिए। फिल्म की स्तरीय और ज़ब्रदस्ती ठूंसी हुई काॅमेडी फिल्म का सबसे कमज़ोर हिस्सा है। वह मनोरंजक होते हुए भी कहानी का हिस्सा ना बन कर कुछ टुकड़ों में अगल-थलग नज़र आती है। चन्नो के बाद बीनू ढिल्लों को अपने किरदारों को लेकर चूज़ी होना होगा। काॅमेडी नाईट्स जैसे चर्चित शोज़स के लेखक से ज़्यादा उम्मीद होना भी स्वभाविक है। बाकी सब किरदार अपनी-अपनी जगह बेहतर निभा गए हैं। फिल्म के गीत यूं तो सभी मन को छूते हैं लेकिन लकीरी कहानी में वह बस खानापूर्ति वाली भूमिका ही निभाते हैं। वह किरदारों के मन की बात तो कहते हैं लेकिन कहानी को आगे बढ़ाने में कोई भूमिका नहीं निभाते। हां, गोरियां बाहां गीत चुलबुली मोहब्बत के ताज़ा झोंके का अहसास कराता है।
आधुनिक दौर के रिश्तों की टूटन को विरासत की जड़ों में तलाशने, एक गंभीर विषय पर एक मनोरंजक फिल्म के लिए लव पंजाब को तीन स्टार दिए जा सकते हैं।
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नीचे आप Punjabi Film Love Punjab English Subtitles के साथ देख सकते हैं।

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