Film Review | बठिंडा एक्सप्रैस (पंजाबी)

दीप जगदीप सि‍ंह -रेटि‍ंग 3/5 

खुद को जीतने की कहानी है बठिंडा एक्सप्रैस। वक्त, हालात और फैसलों के थपेड़े जब इंसान को घुटनों पर ला देते हैं तो कैसे सपनों, हौसलों और आत्मचिंतन के पंखों से वह अपना आसमान वापिस हासिल कर सकता है यही कहती है बठिंडा एक्सप्रैस।

 

इंदर (दीप जोशी) बठिंडा के एक गांव एक साधारण लड़का है दौड़ना जिसका जुनून भी है और इशक भी। इतना दौड़ता है कि प्रैक्ट्सि करने के लिए स्टेडियम जाना हो या गर्लफ्रैंड गुरलीन (जैसमीन) के अचानक बने फिल्म देखने के मूड का ख़्याल रखना हो, अपनी प्यारी बुलेट से ज़्यादा उसे अपनी दौड़ पर भरोसा है। उसकी दौड़ने की ललक की वजह से उसके कोच (तरलोचन सिंह) ने उसका नाम बठिंडा एक्सप्रैस रखा है। उसकी दौड़ और सपनों के साथी हैं उसके दोस्त मोहित भास्कर और विजय एस कुमार। इंदर का भोलापन, खिलंदड़ी हंसी, गजब का आत्म-विश्वास और लम्हा कुछ कर दिखाने का जज़बा उसे भीड़ से अलग बनाता है। अपनी इन्हीं खूबियों से वह गुरलीन का दिल भी जीत लेता है लेकिन अचानक एक दिन उसका चाचा जो इंदर के मां-बाप की मौत के बाद परिवार की सांझी ज़मीन की देखभाल करता है, उसे गांव बुलाता है। चुनाव प्रचार के दौर में इंदर का चचेरा नशेड़ी भाई (प्रिंस कंवलजीत सिंह) उसकी इज्ज़त रखने के लिए शराब पिला देता है और एक महीना उसके साथ रहते हुए वह हर किस्म के नशे का आदी हो जाता है। नशे के चक्कर में वह कानून के हत्थे चढ़े इससे पहले वह भाग कर लुधियाना आ जाता है और यहीं पर उसका नशे की गर्त में डूबते जाने और दौड़, दोस्तों और प्यार से दूर होने का सिलसिला चरम पर पहुंच जाता है। कोच जिसके साथ उसका पिता जैसी आत्मीयता वाला रिश्ता है उसकी इस हालात और अपनी टूटती उम्मीदों से त्रस्त होकर उसे सख़्ती से समझाने की कोशिश करता है, लेकिन इंदर के गर्त में जाने का सिलसिला ढलान की तरफ जाने से नहीं रूक पाता। पंजाबी की एक कहावत है मछली पत्थर चाट कर ही वापिस आती है। इंदर किस पत्थर से टकरा कर कैसे लौटता है यही कहानी है।

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बतौर लेखक दीप जोशी ने मौजूदा दौर के पंजाबी युवा के यथार्थ की कहानी को बारीकी से गढ़ा है। एक सपनीले युवा के यथार्थ को मानसिक स्तर पर जाकर पकड़ने के लिए उन्होंने काफी डिटेल में दृश्य बुने हैं। आज कल के सूपर फाॅस्ट फ्रेम रेट वाले सिनेमा के दौर में उनके दृश्यों में एक विस्तृत ठहराव है। यही डिटेलिंग उनके कई दृश्यों को बेजोड़ बनाती है और दर्शक को बांधे रखती है। नई पीढ़ी के पंजाबी फिल्मकारों और लेखकों के लिए यह एक अच्छी उदाहरण हो सकती है। हालांकि पटकथा के स्तर पर फिल्म कुछ दृश्यों के टुकड़ों में बिखरी पड़ी है जिनमें काफी लम्बा गैप है। दीप जोशी ने थ्री इडियट्स से प्रेरित होकर दोस्तों के ज़रिए मुख्य किरदार की कहानी का नैरेटिव पर्दे पर उतारने की कोशिश की है जो असल में कहानी में गैप फिलर का काम करता है, लेकिन इसके बावजूद कहानी के कई अहम सिरे छूट जाते हैं। उसे पूरा करने के लिए कई जगह पर वाॅयस ओवर नरेशन का प्रयोग किया गया है लेकिन वह भी कहानी को पिरोने में सफल नहीं हो पाता लेकिन दमदार दृश्य और बैकग्राउंड स्कोर इस पर कवच का काम करते हैं। अगर कहानी बताने की बजाए दिखाई जाती तो यह कमी नहीं खलती। नशे में धुत्त होकर खेतों में रेस लगाने से पहले ही गिर जाना, दुकान के बाहर टंगे स्पोर्ट्स शूज़ देख कर उन्हें पहन पर दौड़ने की ललक वाले दृश्य ना सिर्फ गहरा प्रभाव छोड़ते हैं, बल्कि बिना कुछ कहे बहुत गहरी बात कह जाते हैं। यही फिल्म को सार्थकता प्रदान करता है। इंदर का क्लाईमैक्स से पहले अपने अंदर झांकने के लिए पहाड़ों पर जाकर प्राकृति के नज़दीक होना कहानी को एक अध्यात्मिक शिखर प्रदान करता है। दीप जोशी के ही लिखे संवाद कहानी को आगे बढ़ाते रहते हैं लेकिन छाप छोड़ने वाले संवादों की कमी महसूस होती है। कहानी का अंत जि़ंदगी की हर दौड़ को नए सिरे से शुरू करने का प्रभावशाली संदेश गहराई से देता है। खुद की कहानी को निर्देशित करते हुए दीप जोशी ने इसकी खूबियों और खामियों को समझते हुए पूरी कुशलता से पर्दे पर उतारा है। उन्होंने सभी अदाकारों को इम्प्रोवाईज़ करने का पूरा मौका दिया है।


रंगमंच के मंझे हुए अदाकार दीप जोशी ने इंदर के मुख्य किरदार में पूरी फिल्म को अपने कंधों पर पुरी जि़म्मेदारी से संभाला है। इनटेंस दृश्यों में वह किरदार की मानसिकता को अपने चेहरे और हाव भाव से इतनी बख़ूबी पर्दे पर उतारते हैं कि दर्शक उनसे सहानुभूति महसूस करता है। हलके फुलके पलों में उनकी मासूमियत दर्शकों को गुदगुदाती है और रूमानी दृश्यों में उनका भोलापन दिल को छूता है। फिर भी उनके भावनात्मक दृश्य बाकी सभी दृश्यों पर भारी पड़ते हैं। कुछ दृश्य में वह रंगमंचीय लाउडनैस से खुद को बचा नहीं पाते। मोहित भास्कर अपने किरदार को जी भर गए हैं। विजय एस कुमार की सहज, भोली और बेलौस अदाकारी छोटे से किरदार में दिल को छू लेती है। नवोदित जैसमीन कौर को अभी खुद पर बहुत मेहनत करनी होगी। रोमांटिक दृश्यों में जिस कैमिस्ट्री की दरकार होती है उसे पर्दे पर उतारने के लिए महसूस करना होगा। कोच के किरदार में तरलोचन सिंह का अक्खड़ अंदाज़ भाया है। अगर वह बाॅडी लैंग्वेंज में थोड़ी लचक ले आएं तों पंजाबी सिनेमा में बेहतरीन चरित्र अभिनेता की कमी को पूरा कर सकते हैं। प्रिंस के जे सिंह हमेशा की तरह अपने किरदार मे जचे हैं लेकिन उनके हिस्से में बहुत कम दृश्य आए हैं। सिनेमेटोग्राफरों राजू गोगना और सन्नी धंजल ने भीड़-भाड़ भरे शहर, स्टेडियम और गांव के दृश्यों को ज़रूरत के अनुसार पर्दे पर उतारा है। क्लाईमैक्स से पहले पहाड़ों में फिल्माए गाने के दृश्य जहां किरदार के मन में आ रहे बदलाव को गहराई से पर्दे पर उतारते हैं वहीं दर्शक के मन को सकून देते हैं। फिल्म का संगीत इस साल की फिल्मों में सबसे बेहतरीन है, हर गीत ना सिर्फ कहानी को गहराई प्रदान करता है, किरदारों की मनाेदशा बयान करता है, दशकों के दिल को छूता है बल्कि सटीक मौके पर आकर पटकथा को आगे बढ़ाता है। इस फिल्म को इसके विल्क्षण कंसैप्ट और संगीत के लिए याद रखा जाएगा।एडिटिंग के मामले में काफी गुंजायश बची रह गई। मेकअप भी उम्मीद पर खरा नहीं उतरा।


ज़मीन से जुड़ी हुई कहानी, यथार्थ के भावों से जुड़ी हुई अदाकारी और रफ्तार के दौर में स्टारडम की अतिरेकता से बची हुई एक सहज़ फिल्म के लिए बठिंडा एक्सप्रैस को 3 स्टार लाज़मी दिए जा सकते हैं।
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